लेखिकेची संपुर्ण माहिती इथे पहा

Sunday, March 21, 2010

पुरस्कार

0 comments


नव कृष्णा व्हॅली कला महाविद्यालय, सांगली यांच्यातर्फॅ जागतीक महिला दिनानिमित्य
स्व.बबीबाई सुरजमल लुंकड यांच्या स्मरणार्थ सुपर वुमन पुरस्कार देण्यात आले.
ब्लॉगच्या लेखिका सौ . उज्ज्वला केळकर यांना ही त्यांच्या साहित्यातील कामगिरीबद्दल या पुरस्काराने सन्मानित करण्यात आले.

त्यांचे अभिनंदन
अमोल केळकर

Wednesday, March 3, 2010

कृष्णस्पर्श...

0 comments

देशमुख जी की हवेली के पास ही उनका अपना मुरलीधर जी का मंदिर है। भगवान् कृष्ण की जन्माष्टमी का उत्सव होने के कारण मंदिर भक्तों से खचाखच भरा हुआ था। सुबह प्रवचन, दोपहर कथा-संकीर्तन, रात में भजन, एक के बाद एक कार्यक्रम संपन्न हो रहे थे। उत्सव का आज छठा दिन था। आज माई फडके का कीर्तन था। रसीली बानी, नई और पुरानी बातों का एक दूसरे से सहज सुंदर मिलाप करके निरूपण करने का उनका अनूठा ढंग, ताल-सुरों पर अच्छी पकड, सुननेवालों की आँखों के सामने वास्तविक चित्र हूबहू प्रकट करने का नाट्यगुण, इन सभी बातों के कारण कीर्तन के क्षेत्र में माई जी का नाम, आज कल बडे जोरों से चर्चा में था। वैसे उनका घराना ही कीर्तनकारों का ठहरा। पिता जी हरदास थे। माँ बचपन में ही गुजर गई थी। अतः कहीं एक जगह घर बसा हुआ नहीं था। पिता जी के साथ गाँव गाँव जा कर कीर्तन सुनने में उनका बचपन गुजर गया। थोडी बडी होने पर पिता जी के पीछे खडी होकर उनके साथ भजन गाने में समय बीतता गया। पिता जी ने जितना जरूरी था, पढना-लिखना सिखाया। बाकी ज्ञान उन्होंने, जो भी किताबें हाथ लगीं, पढकर तथा पोथी-पुराण पढकर आत्मसात् किया। तेरह-चौदह की उम्र में उन्होंने स्वतंत्र रूप से कीर्तन करना शुरू किया। क्षणभर के लिए माई जी ने अपनी आँखें बंद की और श्लोक प्रारंभ किया। वसुदेवसुतं देवं कंसचाणूरमर्दनं देवकी परमानंदं कृष्ण वंदे जगद्गुरुं।। उनकी आवाज सुनते ही मंदिर में जमे भक्तों ने आपस की बातचीत बंद करते हुए अपना ध्यान माई जी की ओर लगाया। माई जी ने सब श्रोताओं को विनम्र होकर प्रणाम किया और विनती की, ��आप सब एकचित्त होकर अपना पूरा ध्यान यहाँ दें, तथा आप कृष्ण-कथा का पूरा आस्वाद ले सकेंगे। कथा का रस ग्रहण कर सकेंगे। आप का आनंद द्विगुणित, शतगुणित हो जाएगा।�� उन्होंने गाना आरंभ किया राधेकृष्ण चरणी ध्यान लागो रे कीर्तन रंगी रंगात देह वागो रे मेरा पूरा ध्यान राधा-कृष्ण के चरणों में हो। मेरा पूरा शरीर कीर्तन के रंगों में रँग जाए। कीर्तन ही बन जाए। मध्य लय में शुरू हुआ भजन द्रुत लय में पहुँच गया। माई जी ने तबला-हार्मोनियम बजानेवालों की तरफ इशारा किया। वे रुक गए। पीछे खडी रहकर माई जी का गाने में साथ करनेवाली कुसुम भी रुक गई। माई जी ने निरूपण का अभंग गाना शुरू किया। आज उन्होंने संकीर्तन के लिए चोखोबा का अभंग चुना था। ऊस डोंगा परि रस नोहे डोंगा। काय भुललासी वरलिया रंगा।। (ईख टेढामेढा होता है, पर रस टेढा नहीं होता। वह तो सरल रूप से प्रवाहित होता है। तो बाहर के दिखावे के प्रति इतना मोह क्यों?) माई जी को कीर्तन करते हुए लगभग बीस साल हो गए। वाई में कृष्णामाई के उत्सव में माई जी के पिता जी को आमंत्रण दिया गया था। माई जी की उम्र उस वक्त करीब सत्रह-अट्ठारह की थी। अपने पिता जी के पीछे रहते हुए मधुर सुरों में गानेवाली यह लडकी, कीर्तन सुनने आयी हुई आक्का को बहुत पसंद आई। उन्होंने माई जी के पिता जी, जिन्हें सब आदरपूर्वक शास्त्री जी कहकर संबोधित करते थे, के पास अपने लडके के लिए, माई का हाथ माँगा। वाई में उन की बडी हवेली थी। पास के धोम गाँव में थोडी खेती-बाडी थी। वाई के बाजार में स्टेशनरी की दुकान थी। खाता-पिता घर था। इतना अच्छा रिश्ता मिलता हुआ देखकर शास्त्री जी खुश हो गए। आए थे कीर्तन के लिए, पर गए अपनी बेटी को विदा करके। शादी के चार बरस हो गए। आक्का और आप्पा, माई जी के सास-ससुर, उनसे बहुत प्यार करते थे। पर जिसके साथ पूरी जिंदगी गुजारनी थी, वह बापू, एकदम नालायक-निकम्मा था। अकेला लडका होने के कारण, लाड-प्यार से, और जवानी में कुसंगति से वह पूरा बिगड चुका था। वह बडा आलसी था। वह कोई कष्ट उठाना नहीं चाहता था। शादी के बाद बेटा अपनी जिम्मेदारियाँ समझ जाएगा, सुधर जाएगा, आक्का-आप्पा ने सोचा था, किन्तु उनका अंदाजा चूक गया। घर-गृहस्थी में बापू की कोई दिलचस्पी नहीं थी। अपने यार दोस्तों के साथ घूमना फिरना, ऐश करना, इसमें ही उसका दिन गुजरता था। अकेलापन महसूस करते करते माई जी ने सोचा, क्यूँ न अपना कथा-संकीर्तन का छंद बढाए? किन्तु बापू ने साफ इन्कार कर दिया। उसने कहा, ��यह गाना बजाना करके गाँव गाँव घूमने का तुम्हारा शौक मुझे कतई पसंद नहीं। तुम्हें खाने-पीने, ओढने-पहनने में कोई कमी है क्या यहाँ?� माई के पास कोई जबाव नहीं था। आक्का और आप्पा जी की छाया जब तक उनके सिर पर थी, तब तक उन्हें किसी चीज की कमी नहीं महसूस हुई। पर क्या जिंदगी में सिर्फ खाना-पीना, पहनना-ओढना ही पर्याप्त है किसी के लिए? खासकर के किसी औरत के लिए? औरत के केंद्र में सिर्फ उसका पति ही तो होता है न? यहाँ पति के साथ मिलकर अपने परिश्रमों से घर-गृहस्थी चलाने का, सजाने का सुख माई को कहाँ मिल रहा था? बापू बातें बडी बडी करता था, किन्तु कर्तृत्व शून्य! कहता था, ��जहाँ हाथ लगाऊँगा, वहाँ की मिट्टी भी सोने की कर दूँगा।�� ऐसा बापू कहता तो था, किन्तु कभी किसी मिट्टी को उसने हाथ तक नहीं लगाया। कुछ साल बाद पहले आप्पा और कुछ दिन बाद, आक्का का भी देहांत हो गया। अब बापू को रोकने-टोकनेवाला कोई नहीं रहा। अपने यार-दोस्तों के साथ उसका जुआ खेलना बढ गया। अब आप्पा-आक्का के गुजरने के बाद उसने घर में ही जुए का अड्डा बना दिया। झूठ मूठ के बडप्पन के दिखावे के लिए, हर रोज यार-दोस्तों को घर में ही खाना खिलाना शुरू हो गया। दारू शारू पार्टी, गाना-बजाना, तवायफों का नाचना दिन-ब-दिन बढता ही गया। धीरे-धीरे खेत, दुकान, यह सब बेचकर आये हुए पैसे, चले गए। अब कोई चारा नहीं, देखकर माई ने कीर्तन की बात फिर से सोची। ऐसे में भी बापू तमतमाया, ��मेरे घर में ये कीर्तनवाला नाटक नही चाहिये�� ��तो ठीक है। मैं घर ही छोड देती हूँ। आपका घर आफ दोस्त, सब आपको मुबारक। गले लगाकर बैठिए। घर का सारा सामान खत्म हुआ है। आपकी और मेरी रोजी रोटी के लिए बस, मैं इतना ही कर सकती हूँ।�� माई ने जबाव दिया। और कोई चारा न देखकर बापू चुप रहा। स्वयं उसे, कोई काम करने की आदत तो थी नहीं। माई ने ग्रंथ-पुराण-पोथी पढना प्रारंभ किया। हार्मोनियम, तबला, झांज बजानेवाले साथी तैयार किए। कथा-कीर्तन का अभ्यास, सतसंग करना शुरू किया। शुरू में अपने गाँव में ही कीर्तन करना उन्होंने प्रारंभ किया। बचपन में वह कीर्तन करती ही थी। मध्यांतर में सब छूटा था। किन्तु जब उन्होंने ठान लिया, की बस्स, अब यही अपने जीवन का सहारा है, उन्हें छूटा हुआ पहला धागा पकडने में कोई कठिनाई नहीं महसूस हुई। देखते देखते उनकी ख्याति बढ गई। धीरे-धीरे पडोस के गाँवों में भी उन्हें आदरपूर्वक कथा-कीर्तन के लिए आमंत्रण आने लगा। कीर्तन के लिए जाने से पहले, या आने के बाद घर में कभी शांति या चैन की साँस लेना उन्हें नसीब नहीं होता। जब तक माई घर में होती, बापू कुछ न कुछ पिटपिटाता, झगडता रहता। पर माई का मन जैसे पत्थर बन गया था। वह न कुछ जबाव देती, न किसी बात का दुःख करती। आये दिन वह अधिकाधिक स्थितप्रज्ञ होती जा रही थी। अब बापू के मित्र भी उसे छोड गए थे। बापू के पास कुछ भी बचा नहीं था। खेत चिडया चुग गई थी। बाद में बापू बीमार हो गए। साँस लेना भी दुष्कर हो गया। जितना हो सके, माई पत्नी का कर्त्तव्य निभाती रही। बापू की सेवा करती रही, किन्तु पति-पत्नी में प्यार का रिश्ता कभी बना ही नहीं था। अपने जीवन का अर्थ तथा साफल्य माई ने कीर्तन में ही खोजा। उनका सूनापन कीर्तन से ही दूर होता रहा। ऐसे में एक दिन बापू का स्वर्गवास हो गया। स्वर्गवास या नरकवास पता नहीं, किन्तु बापू चल बसे। माई अब एकदम निःसंग हो गई। ऐसे नालायक, गैर जिम्मेदार पति से कोई संतान नहीं हुई, इस बात की उन्हें खुशी ही थी। ससुराल की किसी भी बात की निशानी न रहे, इसलिए वाई का घर-बार बेचकर वह हमेशा के लिए नासिक चली गई। माई जी को कीर्तन करते हुए लगभग बीस साल हो गए। उनका नाम हो गया। कीर्ति बढ गई। हर रोज कहीं ना कहीं कीर्तन के लिए आमंत्रण आता था, या आने-जाने में दिन गुजरता था। आज देशमुख जी के मंदिर में उनका कीर्तन है। निरूपण के लिए उन्होंने संत चोखोबा का अभंग चुना था। उस डोंगा परि रस नोहे डोंगा। काय भुललासी वरलिया रंगा। (ऊस टेढा-मेढा होता है। मगर उस का रस टेढा-मेढा नहीं होता, ऐसे में तुम ऊपरी दिखावे पर क्यों मोहित हो रहे हो माई ने जैसे ही पहला चरण गाया, उनके पीछे खडी कुसुम ने सम पकडकर स्वर बढाया। कुसुम आलाप-तान ले लेकर गाने लगी, नदी डोंगी परि जल नाही डोंगे। (नदी टेढी-मेढी बहती है, पर जल टेढा नहीं होता।) देखते देखते पूरा सभामंडप कुसुम के सुरों के साथ तदाकार हो गया। सुरीली, साफ, खुली, खडी आवाज, फिर भी इतनी मिठास, मानो कोई गंधर्वकन्या गा रही हो। श्रोताओं को लगा, यह गाना पार्थिव नहीं, स्वर्गीय है। ये आलौकिक स्वर जिस कंठ से झर रहे हैं, वह मनुष्य नहीं, मनुष्य देहधारी कोई शापित गंधर्वकन्या है। कुसुम गंधर्वकन्या नहीं थी, किन्तु शापित जरूर थी। कुसुम माई की मौसेरी ननद की बेटी थी। वह पाँच छः साल की थी, तब उसकी माँ दूसरे बच्चे को जन्म देनेवाली थी। प्रसूति के समय माँ अपने जने हुए नवशिशु को साथ लेते हुए चल बसी। कुछ सूझ-बूझ आने के पहले ही घर की जिम्मेदारी कुसुम के नाजुक कंधों पर आ पडी। कली हँसी नहीं, खिली नहीं। खिलने से पहले ही मुरझा गई। वह दस साल की हुई नहीं, कि एक दिन पीलिया से, उसके पिता की मौत हुई। उसके बाद तो, उसके होठ ही सिल गए। साल-डेढ साल उसके ताऊ ने उसकी परवरिश की। अपने तेज और होशियार चचेरे भाई-बहनों के सामने, सातवीं कक्षा में अपनी शिक्षा समाप्त करनेवाली यह लडकी एकदम पगली सी दिखती थी। काली-कलूटी और कुरूप तो वह थी ही। उसे बार-बार अपने भाई-बहनों से तथा उनके स्नेही-सहेलियों से ताने सुनने पडते। ये लोग उसे चिढाते, परेशान करते, उपहास करते हुए, स्वयं का मनोरंजन करते। लगातार ऐसा होने के कारण वह आत्मविश्वास ही खो बैठी। इन दिनों, वह पहले, कुसुम से कुस्मी और बाद में कुब्जा बन गई। कोई उससे बात करने लगे, तो वह गडबडा जाती। फिर उससे गलतियाँ हो जातीं। हाथ से कोई ना कोई चीज गिर जाती। टूटती। फूटती। �पागल� संबोधन के साथ कई ताने सुनने पडते। एक दिन ताऊ जी ने उसे उसका सामान बाँधने को कहा और उसे माई के घर पहुँचा दिया। माई परेशान हो गई। उनकी निःसंग जंदगी में, यह एक अनचाही चीज यकायक आकर उनसे चिपक गई। वह भी कुरूप, पागल, देखते ही मन में घृणा पैदा करने वाली। उसकी जिम्मेदारी उठाने वाला और कोई दिखाई नहीं दे रहा था। कुसुम जैसी काली-कलूटी, विरूप लडकी की शादी होना भी मुश्किल था। माई को लगा, यह लडकी पेड पर चिफ परजीवी पौधे की तरह, मुझसे चिपककर मेरे जीवन का आनंद रस अंत तक चूसती रहेगी। पर अन्य कोई चारा तो था नहीं। उसे घर के बाहर तो नहीं निकाला जा सकता था। दूर की ही सही, वह उनकी भानजी तो थी। मानवता के नाते उसे घर रखना माई ने जरूरी समझा। माई सुसंस्कृत थी। कीर्तन-प्रवचन में लोगों को उपदेश करती थी। अब उपदेश के अनुसार उन्हें बरतना था। कुसुम अंतिम चरण तक पहुँची। चोखा डोंगा परि भाव नाही डोंगा। काय भुललासी वरलिया रंगा। (चोखा टेढा-मेढा है, पर उसके मन का भाव वैसा नहीं। अतः ऊपरी दिखावे से क्यों मोहित होते हो...? ) कुसुम को लगा, अभंग में तल्लीन लोगों से कहे, कुस्मी डोंगा परि गुण नोहे डोंगे...। कुसुम कुरूप है, किन्तु उस का अंतर, उसमें समाये हुए गुण कुरूप नहीं हैं। माई जी ने दोनों हाथ फैलाकर कुसुम को रुकने का इशारा किया। सभागृह में बैठे लोगों को सुध आ गई। कुसुम सोचने लगी, अभंग गाते समय उससे कोई भूल तो नहीं हुई? वह डर गई। गाते समय उसके चेहरे पर आई आभा अब लुप्त सी हो गई। बदन हमेशा की तरह निर्बुद्ध सा दिखने लगा। माई जी ने अभंग का सीधा अर्थ बता दिया। फिर व्यावहारिक उदाहरण देकर, हर पंक्ति, हर शब्द के मर्म की व्याख्या की। �देखिये, नव वर्ष के पहले दिन, गुढी-पाडवा के दिन हम कडुनिंब के पत्ते खाते हैं। कडवे होते हैं, पर उन्हें खाने से सेहत अच्छी रहती है। आरोग्य अच्छा रहता है। आसमान में चमकनेवाली बिजली... उस की रेखा टेढी-मेढी होती है, किन्तु उसकी दीप्ति से आँखें चौंध जाती हैं। नदी टेढी-मेढी बहती है, लेकिन उसका पानी प्यासे की प्यास बुझाता है। एक तृषार्त राजा की कहानी, अपने रसीले अंदाज में उन्होंने सुनाई और अपने मूल विषय की ओर आकर कहा, ��चोखा डोंगा है, मतलब टेढा-मेढा है, काला कलूटा है, पर उसकी अंतरात्मा सच्चे भक्तिभाव से परिपूर्ण है। सभी संतों का ऐसा ही है। ईश्वर के चरणों पर उनकी दृढ श्रद्धा है। अपना शरीर रहे, या न रहे, उन्हें उसकी कतई परवाह नहीं है। उनकी निष्ठा अटूट है।� माई जी ने पीछे देखकर कुसुम को इशारा किया, और कुसुम गाने लगी, देह जावो, अथवा राहो। पांडुरंगी दृढ भावो। यह शरीर रहे, या न रहे। पांडुरंग के प्रति मेरी भक्तिभावना दृढ रहे। सच्ची रहे। फिर एक बार पूरा सभामंडप कुसुम के अलौकिक सुरों के साथ डोलने लगा। माई को थोडी फुरसत मिल गई। माई की बढती उमर आज-कल ऐसे विश्राम की,? फुरसत की, माँग कर रही थी। इस विश्राम के बाद उनकी आगे चलने वाली कथा में जान आ जाती। जोश आ जाता। विगत तीन साल से कुसुम माई के पीछे खडी रहकर उनका गाने का साथ दे रही है। माई जी निरूपण करती है और बीच में आनेवाले श्लोक, अभंग, ओवी, साकी, दिण्डी, गीत सब कुछ कुसुम गाती है। उसकी मधुर आवाज और सुरीले गाने से माई जी का कीर्तन एक अनोखी ऊँचाई को छू जाता है। माई जी का कीर्तन है सोने का गहना, और कुसुम का स्वर है, जैसे उस में जडा हुआ झगमगाता हीरा। कुसुम का गाना अचानक ही माई के सामने आया था। जब से वह घर आई थी, मुँह बंद किए ही रहती थी। जरूरी होने पर सिफर् हाँ या ना में जबाव देती। देखनेवालों को लगता, गूँगी होगी। माई के घर आने के बाद, वह घर के कामकाज में माई का हाथ बँटाने लगी। उसे तो बचपन से ही काम करने की आदत थी। धीरे-धीरे उसकी जिम्मेदारियाँ बढने लगीं। माई गृहस्थी के काम-काज में उस पर अधिकतर निर्भर रहने लगी। उसके घर आने से माई को पढने के लिए, नये-नये आख्यान रचने के लिए, ज्यादा फुरसत मिलने लगी। बाहर से आते ही उन्हें चाय या शरबत अनायास मिलने लगा। खाना पकाना, बाजार में जाकर आवश्यक चीजें खरीदना, घर साफ-सुथरा रखना, यह काम कुसुम बडी कुशलता से करती, पर कोई पराया सामने आए, तो न जाने उसे क्या हो जाता, वह गडबडा जाती। उसके चेहरे पर उभरा पागलपन का भाव देखकर माई को चिढ आने लगती और वह चिल्लाती, ��ऐ, पागल, ध्यान कहाँ है तेरा?�� तो कुसुम हडबडी में और कोई न कोई गलती कर बैठती। माई को कभी-कभी अपने आप पर ही गुस्सा आ जाता। इसमें उस बेचारी की क्या गलती है? रूप थोडे ही किसी के हाथ होता है! मैं खुद प्रवचन में कहती फिरती हूँ, �काय भुललासी वरलिया रंगा?� (ऊपरी रंग पर क्यों मोहित होते हो?) यह सब क्या सिर्फ सुनने-सुनाने के लिए ही है? फिर कुसुम के बारे में उनके मन में ममता उभर आती। पर उसे व्यक्त कैसे करे, उनके समझ में नहीं आता। पिछले छः सात सालों से कुसुम के बारे में करुणा और घृणा दोनों के बीच उनका मन आंदोलित होता रहता था। अट्ठारह साल की हो गई थी कुसुम। चुप्पी साधे हुए घर का सारा काम निपटाती थी, इस तरह, कि देखने वालों को लगता लडकी गूँगी है। उस दिन पालघर से कीर्तन समाप्त करने के बाद माई घर लौटी, तो घर से अत्यंत सुरीली आवाज में उन्हें गाना सुनाई दिया। धाव पाव सावळे विठाई का मनी धरली अढी (हे साँवले भगवान, विठूमैया, तुम क्यों रुष्ट हो? अब मुझ पर कृपा करो।) माई के मन में आया, ��इतनी सुरीली आवाज में कौन गा रहा है। कीर्तन का आमंत्रण देनेवालों में से तो कोई नहीं है? माई अंदर गई। घर में दूसरा कोई नहीं था। कुसुम अकेली ही थी। अपना काम करते-करते गा रही थी। एकदम मुक्त... आवाज में इतनी आर्तता, इतना तादात्म्य मानो, सचमुच उस साँवले विट्ठल के साथ बात कर रही हो। माई के आने की जरा भी सुध नहीं लगी उसे। वह गा रही थी और माई सुन रही थी। अचानक उसका ध्यान माई की ओर गया और वह घबरा गई। गाना एकदम से रुका। ताजा पानी भरने के लिए हाथ में पकडा फूलदान जमीन पर गिरा और टूट गया। उसके बदन पर पागलपन की छटा छा गई। डरते-डरते वह काँच के टुकडे समेटने लगी। ��कुसुम फूलदान टूट गया, तो ऐसी कौन सी बडी आफत आ गई? कोई बात नहीं। इसमें इतनी डरने वाली क्या बात है?�� माई ने कहा। आज पहली बार माई ने उसे पागल, न कहकर उसके नाम से संबोधित किया था। जिस मुँह से अंगार बरसने की अपेक्षा थी, उसमें से शीतल बौछार करने वाले ये शब्द कैसे? कुसुम आश्चर्य से माई की ओर देखने लगी, तो उसका बदन और भी बावला सा दिखने लगा। यह क्षण माई के लिए दिव्य अनुभूति का क्षण था। उन्हें लगा, ईश्वर ने कुसुम से रूप देते समय कंजूसी जरूर की है, किन्तु यह कभी, उस को दिव्य सुरों का वरदान देकर पूरी की है। अपना सारा निर्माण कौशल्य भगवान् ने उसका गला बनाते समय, उसमें दिव्य सुरों के बीज बोते समय इस्तेमाल किया है। उस दिन उसका गाना सुनकर माई ने मन ही मन निश्चय किया कि वह उसे कीर्तन में गाए जाने वाले अभंग सिखाएगी और कीर्तन में उसका साथ लेगी। उन्होंने यह बात कुसुम को बताई और कहा, ��कल से रियाज शुरू करेंगे।�� कीर्तन में गाए जाने वाले पद, ओवी अभंग, साकी दिण्डी, दोहे सब की तैयारी माई अपने घर में ही करती थी। हार्मोनियम, तबला बजाने वाले साजिंदे रियाज के लिए कभी-कभी माई के घर आते। हमेशा घर में होता हुआ गाने का रियाज सुनते-सुनते कुसुम को सभी गाने कंठस्थ थे। माई जब कुसुम को कीर्तन में गाए जाने वाले गाने सिखाने लगी, तो उन्हें महसूस हुआ, कि कुसुम को ये सब सिखाने की जरूरत ही नहीं है। उसे सारे गाने, उसके तजर्सहित मालूम है। उसमें कमी है, तो बस सिर्फ आत्मविश्वास की। यों तो अच्छी गाती, किन्तु बजाने वाले साथी आए, तो हडबडा जाती। सब कुछ भूल जाती। उसने डरते-सहते एक दिन माई से कहा, ��ये मुझसे नहीं होगा। लोगों के सामने मैं नहीं गा पाऊँगी।�� अब थोडा सख्ती से पेश आना जरूरी था। माई ने धमकाया, ��तुझे ये सब आएगा। आना ही चाहिये, अगर तुझे इस घर में रहना है, तो गाना सीखना होगा। मेरा साथ करना होगा।�� बेचारी क्या करती? उसे माई के सिवा चारा था ही कहाँ? माई ने धमकाया। साम-दाम-दण्ड नीति अपनाई और कुसुम का रियाज शुरू हुआ। अब कुसुम गाने लगी, माई से भी सुंदर, भावपूर्ण, सुरीला गाना। गाते समय वह हमेशा की पगली-बावली कुसुम नहीं रहती थी। कोई अलग ही लगती। गंधर्वलोक से उतरी हुई एखादी गंधर्वकन्या। पिछले तीन सालों से माई के पीछे खडी होकर वह कीर्तन में माई के साथ गाती आ रही थी। माई जी ने भजन करने के लिए कहा, ��राधाकृष्ण- गोपालकृष्ण��-��राधाकृष्ण- गोपालकृष्ण�� पूरा सभामंडप गोपालकृष्ण की जयघोष से भर गया। तबला और हार्मोनियम के साथ तालियाँ और शब्द एकाकार हो गए। भजन की गति बढ गई। आज उत्तररंग में माई जी कुब्जा की कथा सुनाने वाली थी। माई कहने लगी, ��हमने पूर्वरंग में देखा, कि मनुष्य के बाह्य रूप की अपेक्षा उसके अंतरंग की भावना महत्त्वपूर्ण है। ईश्वर को भी भाव की भूख होती है। ईश्वर पर नितान्त श्रद्धा रखने वालों को कुब्जा की कथा ज्ञात होगी ही। चलो! आज हम सब मथुरा चलते हैं। मथुरा में आज भगवान् कृष्ण पधार रहे हैं। आज कुछ खास होने वाला है। सबका मन अस्वस्थ है। दिल में अनामिक कुतुहल है, साथ-साथ कुछ चिंता, बेचैनी भी है। अष्टवक्रा (जिस का तन आट जगह टेढा-मेढा है) कुब्जा मन में विचार कर रही है, ��आज मुझे कृष्णदर्शन होंगे ना? क्या मैं उनके पैरों पर माथा टेक सकूँगी? उन्हें चन्दन लगा सकूँगी कितने दिन हो गए, उस पल को! सारा जग निदि्रत था। मध्यरात्रि का समय था। मैं यमुनास्नान के लिए गई थी। कोई देखकर मेरे रूप का उपहास न करे, ताने न कसे, इसके लिए, मध्य प्रहर में ही स्नान करने का प्रण कितने ही दिनों से लिया था मैंने। उस दिन, नहीं. नहीं. उस मध्याह्नरात में, नदी के उस पार से आनेवाली कृष्ण जी की मुरली की धुन सुनी और मुझे लगा, मेरा जीवन सार्थक हो गया।�� माई जी के रसीले विवेचन ने श्रोताओं के सामने साक्षात् कुब्जा खडी कर दी। उसका मन स्पष्ट हो रहा था। काली स्लेट पर लिखे सफेद अक्षरों की तरह श्रोता कुब्जा का मन पढने लगे थे। हाथ पीछे करके माई जी ने कुसुम को इशारा किया। वह गाने लगी। अजून नाही जागी राधा अजून नाही जागे गोकुळ अशा अवेळी पैलतिरावर आज घुमे का पावा मंजुळ। (अभी राधा सोई हुई है। सारा गोकुल सोया है। ऐसे में उस पार बाँसुरी की यह मधुर धुन क्यों बज रही है।) मुरली की वह धुन अब कुसुम को भी सुनाई देने लगी। उसके कान में वे सुर गूँजने लगे। विश्वच अवघे ओठा लावून। कुब्जा प्याली तो मुरली रव। (जैसे पूरा विश्व अपने होठों से लगाकर कुब्जा ने मुरली की ध्वनि पी ली।) कुब्जा कहाँ? वह कुस्मी थी। या कृष्णयुग की वही कुब्जा, आज के युग की कुस्मी बनी थी और धीरे-धीरे अपने भूतकाल में प्रवेश कर रही थी। माई जी कहने लगी, ��मथुरा के राजमार्ग पर सभी श्रीकृष्ण् की राह देख रहे थे। इतने में कुब्जा लडखडाती हुई आगे बढी। कुछ लोग बोलने लगे...� कुसुम ने साकी गाना प्रारंभ किया, नकोस कुब्जे येऊ पुढती ऽऽऽ करू नको अपशकुना ऽऽऽ येईल येथे क्षणी झडकरी नंदाचा कान्हा ऽऽऽ� (कुब्जा तुम आगे मत बढो। मनहूस न बनो। अपशकुन मत करो। अब यहाँ किसी भी क्षण नंद का कान्हा आएगा।) माई जी ने विवेचन करना प्रारंभ किया..� कुब्जा पूछने लगी, ��क्या मेरे दर्शन से भगवान् श्री कृष्ण को अपशकुन होगा? भक्तन से मिलने पर भगवान् को कभी अपशकुन हुआ है? फिर वे कैसे भगवान्?�� वह मन ही मन कहने लगी, ��कितने साल हो गए, इस क्षण की प्रतीक्षा में ही मैं जिंदा रही हूँ। इसी क्षण के लिए मैंने अपनी जिंदगी की हर साँस ली है...।�� सभामंडप में उपस्थित श्रोता निश्चलता से साँस रोककर माई जी को सुन रहे थे। कुब्जा की भावना चरम सीमा पर पहुँची थी। माई आगे की कथा सुनाने लगी। इतने में ��आया. आया. कृष्णदेव आ गया. गोपालकृष्ण महाराज की जय!�� मथुरा के प्रजाजन ने कृष्णदेव का जयजयकार किया।��.. इसी समय माई जी के आवाज में अपनी आवाज मिलाकर सभामंडप में उपस्थित श्रोताओं ने भी जयजयकार किया। ��..कृष्णदेव आ गए। कुब्जा आगे बढी। सैनिकों ने उसे पीछे खींच लिया। पर आज उसमें न जाने कहाँ से इतनी शक्ति आ गई थी, उन्हें ढकेलकर कुब्जा आगे बढी हाथ में चाँदी की कटोरी, कटोरी में चंदन, दूसरे हाथ में मोगरे की माला... यह सब बनाने के लिए उसे सारी रात कष्ट उठाना पडा था। कृष्ण को यह सब अर्पण करके उस का कष्ट सार्थक होने वाला था।�� माई जी ने कुसुम को इशारा किया। वह गाने लगी। शीतल चन्दन उटी तुझिया भाळी मी रेखिते नवकुसुमांची गंधित माला गळा तुझया घालते भक्तवत्सला भाव मनीचा जाणून तू घेई कुब्जा दासी विनवितसे रे ठाव पदी मज देई (मैं। तुम्हारे माथे पर चन्दन टीका लगा रही हूँ। नवकोमल सुगन्धित पुष्पमाला तुम्हें पहना रही हूँ। हे भक्तवत्सल, मेरे मन का भाव तू जान ले। यह कुब्जा दासी तुम्हें विनती करती है, कि अपने चरणों में मुझे जगह दे।) �कुब्जा को भगवान् को चन्दन लगाना था। उसके गले में माला पहनानी थी, किन्तु वह इतनी लडखडा रही थी, कि उसके हाथ और कृष्ण का माथा, गला इनका मेल नहीं हो रहा था। जब कृष्ण ने अपने पैर के अंगूठे से कुब्जा का पैर दबाया, तो लडखडाने वाली कुब्जा स्थिर हो गई। उसने चन्दन लगाकर कृष्ण को माला पहनाई और अनन्य भाव से कृष्ण की शरण में आई। अपना सिर कृष्ण के पैरों पर रख दिया। उस के बाहु पकडकर कृष्ण ने उसे उठाया और कितना आश्चर्य... स्पर्शमात्रे कुरूप कुस्मी रूपवती झाली अगाध लीला भगवंताची मथुरे ने देखिली देव भावाचा भुकेला.. भावेवीण काही नेणे त्याला� (उसके स्पर्श से कुरूप कुस्मी रूपवती बन गई। भगवान् की अगाध लीला मथुरा के समस्त नागरिकों ने देख ली। भगवान् भक्त के मन का भाव, श्रद्धा देखते हैं। श्रद्धाभाव के सिवा भगवान् को कुछ भी नहीं चाहिये।) कुसुम ने भैरवी गाने का प्रारम्भ किया था। उसके अबोध मन ने कुब्जा की जगह स्वयं को देखा था और भैरवी में कुब्जा न कहते हुए, कुस्मी कहा था। माई के ध्यान में सब गडबडी आ गई, किन्तु श्रोताओं की समझ में कुछ नहीं आया। शायद उन्हें पूर्व कथानुसार कुब्जा ही सुना दिया हो। कुसुम गाती रही.. गाती रही.. गाती ही रही। माई ने कई बार इशारे से उसे रोकने का प्रयास किया, पर कुसुम गाती ही रही। मानो, कुस्मी ने भगवान् के चरणों पर माथा टेका हो। वह उनके चरणों में लीन हो गई हो। भगवान् ने अपने हाथों से उसे उठाया, और क्या? कुसुम रूपवती हो गई! अब भगवान् के गुणगान के सिवा उसकी जिंदगी में कुछ भी बचा नहीं था। कुछ भी.. कुसुम गाती रही.. गाती रही.. गाती ही रही। छः बज चुके थे। कीर्तन समाप्त करने का समय हो गया था। कुसुम का गाना रुक नहीं रहा था आखिर उसे वैसे ही गाते छोडकर माई जी कथा समाप्ति की ओर बढी। �हेचि दान देगा देवा। तुझा विसर न व्हावा। विसर न व्हावा। तुझा विसर न व्हावा।� (हे भगवान्! हमें इतना ही दान दे दे, कि हम तुम्हें कभी भूले नहीं) ऐसा कहते हुए उन्होंने प्रार्थना की और आरती जलाने को कहा। आरती शुरू हो गई, तो कुसुम को होश आ गया। वह गाते गाते रुक गई। गाना रुकने के साथ-साथ, उसके चेहरे की चमक भी लुप्त हो गई। अपनी भूल का उसे अहसास हो गया। वह डर गई। हडबडा गई। और ही बावली लगने लगी। तितली की शायद इल्ली बनने की शुरुआत होने लगी। आरती का थाला घुमाया गया। उसमें आए पैसे, फल, नारियल, किसी ने समेटकर माई जी को दे दिए। देशमुख जी ने माई जी को रहने के लिए जो कमरा दिया था, उसकी ओर माई जाने लगी। उनके पीछे-पीछे डरती-सहमती, पाँव खींचती, खींचती, इल्ली की तरह कुसुम भी जाने लगी। आज पहली बार माई को महसूस हुआ, कि कुसुम इतनी विरूप नहीं है, जितनी लोग समझते हैं। वह कुरूप लगती है, इसका कारण है, आत्मविश्वास का अभाव। गाते समय वह कितनी अलग, कितनी तेजस्वी दिखती है, मानो कोश से निकलकर इल्ली, तितली बन गई है.. रंग विभारे तितली। माई नें ठान ली, अब इस तितली को वे फिर से कीडे-मकोडे में परिवर्तित नहीं होने देगी। आत्मविश्वास का �कृष्णस्पर्श� उसे देगी। अब वह उसे किसी अच्छे उस्ताद के पास गाना सिखाने भेजेगी। कीर्तन सिखाएगी। उसे स्वावलंबी, स्वयंपूर्ण बनाएगी। उनके दिल में कुसुम के प्रति अचानक प्यार का सागर उमड आया। क्या आज माई के विचारों को भी �कृष्णस्पर्श� हुआ था?

Sunday, January 17, 2010

पुणे मेळावा - आयोजकांचे अभिनंदन

3 comments


पुणे येथे - मराठी ब्लॉगर्स चा मेळावा जो यशस्वी पार पडला त्याबद्दल सर्व आयोजकांचे अभिनंदन. या मेळाव्यात जे विषय चर्चीले गेले आहेत ते सर्व भविष्यात घडून येऊन, मराठी ब्लॉग हे एक नवीन आधुनीक माध्यम म्हणून यशस्वी व्हावे अशा माझ्या शुभेच्छा

( अधिक वृत्तांत श्री अनिकेत यांच्या अनुदिनीत इथे पाहू शकता )


मी स्वतः लेखिका आहे. साहित्य संमेलना बाबत खालील माहिती श्री. अनिकेत यांच्या वृत्तांतात वाचली .

1) स्नेह-मेळाव्यासाठी काही पुस्तक प्रकाशकांचीही हजेरी. शोध नविन लेखकांचा. लवकरच त्या प्रकाशकांची चांगल्या ब्लॉगर्सशी ह्या मेळाव्याच्या आयोजकांतर्फे ओळख करुन देण्यात येईल.
2) मराठी साहीत्य संमेलनात ब्लॉग्सतर्फे प्रसिध्द केल्या जाणाऱ्या साहीत्याची ही दखल घेतली जावी असे अनेकांना वाटते आणि त्यासाठीचे निवेदन येत्या काही दिवसांत अखिल भारतीय संमेलनाचे नवनिर्वाचीत अध्यक्ष डॉ.द.भि.कुलकर्णी ह्याच्याकडे एका शिष्टमंडळातर्फे सुपुर्त केले जाईल. स्नेहमेळाव्याच्या आयोजकांनी हा ठराव आणि त्यासाठीचे निवेदन तयार करुन ठेवले आहे. कुलकर्णी साहेबांची वेळ मिळतात ते त्यांच्याकडे सुपुर्द केले जाईल.
3) पुण्यात होणाऱ्या अखिल भारतीय मराठी साहीत्य संमेलनात मराठी ब्लॉगर्ससाठी एक स्टॉल स्पॉन्सर्ड झाला आहे. ह्या स्टॉल तर्फे संमेलनात येणाऱ्या वाचकांना ब्लॉग्सबद्दल, त्यावरील साहीत्याबद्दल अधीक माहीती दिली जाईल तसेच काही निवडक ब्लॉग्सचे साहीत्य आणि त्या ब्लॉग्सचे दुवे त्या त्या लेखकांच्या संमंतीने ह्या स्टॉलवर मांडले जातील. याबाबत अधीक माहीती येत्या काही दिवसांत प्रसिध्द केली जाईल

एक लेखिका म्हणून याबात जे निर्णय होतील त्याबद्दल उत्सुकता लागून राहिली आहे.

धन्यवाद
उज्ज्वला केळकर
सांगली

----------------------------------

माझी इतर माहिती इथे पहा.

 
MySpace Backgrounds