लेखिकेची संपुर्ण माहिती इथे पहा

Wednesday, November 4, 2009

व्यक्तित्व - सरला दी जीवेत शरदः शतम्

मधुमती या राजस्थानातून प्रकाशीत होणार्‍या मासिकात सरला अग्रवाल यांच्याबद्दल लिहिलेला हा लेख ( हिंदितून )

नयी सहस्त्रब्दि के आगमन की बडी धूम मची थी। हमारे लिए उसकी झोली में क्या होगा ? थोडी उत्कंठा, थोडी आशंका, उत्सुकता थी। जो भी वह लाएगा, नतमस्तक होकर स्वीकारना ही पडेगा, यह पहले से ही निश्चित था। आखिर वह नयी सहस्त्रब्दि आ ही गयी। अपनी ही धुन में मस्त होकर, अपनी ही रफ्तार से आ गयी। मेरे लिए इस वक्त उसकी झोली में एक अद्भुत चीज थी। वह मेरे लिए एक नई बहन लाई थी। बडी बहन। मेरी आत्मीय। मेरी दीदी। सरलादी। सरला दी और मैं, वास्तव में, आज तक कभी एक दूसरे से मिली नहीं। परन्तु कल्पना के पंखों पर सवार होकर मैं कई बार उनके पास गई हूँ। उन्होंने मुझे गले लगाया है। गोद में बिठाया है। बहुत सारा स्नेह, प्यार दिया है। मैंने अपनी मन की आँखों से उन्हें जी भरके निहारा है। सरलादी से मेरी पहली मुलाकात करवाई ?सुगना? ने। उनकी ?माहौल के हाथों? लघुकथा की नायिका ?सुगना?। दीन व्यथित महिला। घर-घर में झाडू पोंछा करके, बरतन माँज के अपना और अपने बीमार बाप का खर्च चलाने वाली स्त्री। अपनी टूटी-फूटी झोंपडी में अपने काम के पैसे सुरक्षित नहीं रहेंगे, सोचकर वह अपनी मालकिन को अपने सुरक्षित रखने के लिए देती है। दो दिन बाद उसके बाप की हालत और भी खराब होती है। उसे अस्पताल में भरती करना पडता है। डॉक्टर दवाइयाँ लिख देते हैं। रात का समय, पास में फूटी कौडी भी नहीं। सुगना मालकिन के पास रखे पैसे वापस लेने जाती है। मालकिन मैके गई है। उसने सुगना के पैसे अलग से रख दिए हैं। वह उसके पति के हाथ लगते हैं। वह सोचता है, पत्नी ने ये रुपये शायद उसके लिए ही रखे होंगे। अपने लाभ की बात सोचकर पैसे लेकर वह अपने यार दोस्तों के साथ शराब की पार्टी में मस्त हो जाता है। सब लोग नशे में धुत् हैं। ऐसे में अपने पैसे वापस लेने आई सुगना अनायास ही उन अधमों की चपेट में आ जाती है। उसकी इज्जत लूटी जाती है। अपना सब कुछ खोकर सुबह सुगना जब अस्पताल आती है, तब तक, समय पर दवा न मिलने के कारण, बाध की मृत्यु हो चुकी होती है। ऐसी अभागी ?सुगना? को मैं आज तक भूल नहीं सकी। ?सुगना? को पढने के बाद मुझसे रहा न गया। ऐसी व्यक्ति रेखा को सृजित करने वाली सरला अग्रवाल को मैंने खत लिखा। ?सुगना? के कारण मुझे ?सरला दी? मिलीं, किन्तु ?सुगना? मुझे कैसे मिली ? एक दिन अचानक पटना से प्रकारित होने वाली त्रैमासिक पत्रिका ?कथासागर? मेरे हाथ लग गई। उसमें ?सुगना? लघुकथा थी। हम मराठी में जिसे लघुकथा कहते हैं, उससे भी छोटी। एकदम संक्षिप्त। मराठी की लघुकथा, हिन्दी में कहानी होती है। हिन्दी लघुकथा २५० या ३०० शब्दों की होती है, कभी कभी उससे भी कम। मराठी में इतनी छोटी कथा लिखने का प्रचलन नहीं है। लघुकथा की यह विधा हिन्दी में काफी समृद्ध है। साहित्य की इस विधा की नवीनता, मार्मिकता, सटीकता से मैं प्रभावित हो गई, और ऐसी हिन्दी लघुकथाओं का अनुवाद, ?लोकमत?, में ?तरुण भारत? के ?खजाना? परिशिष्ट में सादर भेजने लगी। (उनमें से ?लोकमत में छपी तारिक असलम ?तस्नीम? की कथाओं का अनुवाद ?स्पॉटलाईट? नाम से, एवं तरुण भारत ?खजाना? परिशिष्ट में छपी हुई ?कमल चोपडा? की कथाओं का अनुवाद ?संवेदना? नाम से पुस्तकाकार रूप में ?मेहता प्रकाशन? द्वारा अभी-अभी मार्च ०७ में प्रकाशित हुआ है।) ?सुगना? कथा मुझे अच्छी लगी। उसका अनुवाद करने के लिए मूल लेखिका की अनुमति आवश्यक थी। मैंने एक औपचारिक पत्र सरला अग्रवाल के नाम लिख दिया, जिसमें ?माहौल के हाथों? कथा का मराठी में अनुवाद करने की अनुमति देने की विनती की थी। मेरा पत्र औपचारिक था, किन्तु उनका प्रत्युत्तर आत्मीयता से भरपूर था। उसमें अनुवाद की अनुमति तो थी ही, पर उसके साथ-साथ, थोडी अपनी जानकारी थी और बडे प्यार से मेरे बारे में पूछताछ की थी। अंत में बडे स्नेह से हस्ताक्षर किए थे, ?आप की बहन? लिखकर। आगे खतों का सिलसिला जारी रहा। उम्र का हिसाब-किताब हो गया और वे लिखने लगीं, ?आपकी ही सरलादी?। ?खजाना? में मेरे द्वारा अनूदित कथाओं का धारावाहिक क्रम चल रहा था। अतः मैंने सरलादी से विनती की, कि वे उनकी और कुछ लघुकथाएँ भेजें। उन्होंने आठ दस लघुकथाएँ भेजी ही, साथ-साथ लिखा, कि मैं अधिकतर कहानियाँ लिखती हूँ। सिर्फ लिखा ही नहीं, साथ में, ?चर्चित कहानियाँ?, ?स्मृतियों का सफर?, ?समय के दस्तावेज?, ?अंतर्ध्वनि?, ये चार किताबें भी भेजीं। ?चर्चित कहानियाँ? कहानी संग्रह है। ?स्मृतियों का सफर? नये-पुराने साहित्यकारों की यादों से जुडा है। ?समय के दस्तावेज? में साहित्य और जीवन के बारे में वैचारिक निबन्ध हैं और ?अंतर्ध्वनि? कविता-संग्रह है। सरलादी से प्रत्यक्ष मिलने की बडी उत्कंठा थी। मगर क्या करें ? जब भी योजना बनाती, कुछ न कुछ पारिवारिक समस्या सामने आ जाती। दोनों का सात सौ - आठ सौ किमी. का लम्बा फासला। फिर सोचा, उनके साहित्य के माध्यम से ही उन्हें जान लूँ। किसी भी लेखक की विचारधारा, भावना-कल्पना, पसन्द-नापसन्द की चीजें, आस्था या अनास्था के विषय, उसके साहित्य में प्रतिबिम्बित होते हैं। उनके लेखन की ओर अब मैं इस नई दृष्टि से देखने लगी। उनके साहित्य के आधार पर उनके व्यक्तित्व को समझने का प्रयास करने लगी। सोचने लगी क्या उन्हें देखे बिना उनकी पुस्तकों से मैं उनके व्यक्तित्व को समझने में कामयाब हो सकूँगी ? हाथ में उनके खुले दिल से लिखे हुए पत्र भी थे। उनमें से ?उनके बारे में हर बार, कुछ नया-नया मिल ही जाता था। उनका नया सृजन, नया यश, मान-सम्मान, परिचर्चा में सहभाग और बहुत कुछ .......। सरलादी की किताब, ?समय के दस्तावेज? सन् २००२ में प्रकाशित हुई। इसमें ३५ वैचारिक निबन्ध हैं। पुस्तक रूप में प्रकाशित होने से पहले, वे विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में छापे जा चुके थे। साहित्य, जीवन, संस्कृति, भाषा, समाज, राजकीय शिक्षा, धर्म, नैतिकता, मानवता आदि विषयों पर ये निबन्ध लिखे गए हैं। इन्हें पढने पर लेखिका की प्रखर बुद्धिमत्ता, प्रकाण्ड विद्वता को माना जा सकता है। उन्होंने बहुत कुछ पढा है और उसके संदर्भ कुशलता से अपने लेखन में प्रयुक्त किए हैं। विचारों में तर्कशीलता है। विवेकशीलता है। विद्वतापूर्ण एवं तर्कशुद्ध होते हुए भी, लेखन में कहीं भी रुक्षता एवं नीरसता नहीं है। इसका कारण है, उनका कोमल एवं संवेदनशील मन। इसी कारण, उनके गद्य लेखन में भी तरल काव्यस्पर्श हुआ है। अपना भारत, अपनी प्राचीन परम्परा, संस्कृति, अपने जीवन मूल्य, जैसे सत्यम्....शिवम्....सुन्दरम्....वसुधैव कुटुम्बकम् .....अपनी भाषा (हिन्दी और सभी भाषाओं की जननी संस्कृत) आदि सभी बातों पर उनकी अपार निष्ठा है। साहित्य में ?स्व? के सवाल पर विमर्श करते हुए वे ऊपरी सब चीजों की अपेक्षा साहित्यकार से करते हुए कहती है, ?साहित्य अतीत, वर्तमान और भविष्य का दर्शन है।? वह अपनी परम्पराओं और संस्कृति के मूल सारस्वत स्रोत सी प्रवाहित होती हुई, शक्तिमति जीवन सरिता है। वह वर्तमान के नवप्रभात की नवल किरणों का भी स्वागत करती है। साहित्यकार पुरातनता और नवीनता का मंगल सेतु है। अतः जीवनमूल्यों की रक्षा करते हुए, जिस साहित्य की सृष्टि की जाएगी, वही साहित्य श्रेष्ठता की परिधि में मान्य हो सकेगा। अपने ?स्व? की उदात्तता को भूलकर, परकीय का अंधानुकरण प्रगति नहीं, रसातल की ओर जाना है। ?सरलादी की विचारधारा इस प्रकार सुस्पष्ट है। कविवर स्व. बा. भ. बोरकर जी की एक कविता है। उन्होंने लिखा है, ?दिव्यत्वाची जेथ प्रचीती, तेथे कर माझे जुलती? मतलब, दिव्यत्व के सामने हम नतमस्तक हो जाते हैं। यही विनीत भाव, सरलादी के व्यक्तित्व की एक रेखा है। प्राचीन ऋषि-मुनि, व्यास-वाल्मीकी, संस्कृत कवि, तुलसी-कबीर जैसे संत, मीरा बाई से लेकर आज के युग के सुभद्रा कुमारी चौहान, मैथिलीशरण गुप्त, महादेवी वर्मा, किस-किस का नाम लें ? इन सबके बारे में सरलादी ने बडी श्रद्धा से लिखा है। ?स्मृतियों का सफर? और ?समय के दस्तावेज? में यह ?दस्तावेज? समाया है। जिसके बारे में उन्होंने लिखा है, इतनी आत्मीयता से लिखा है, कि प्रो. प्रेम मोहन लखोटिया उनके बारे में लिखते हैं, ?कोने के एक माटी के दीपक को आपने आकाश गंगा में बिठा दिया। अब मैं खुद को सुन्दर देखने लगा हूँ। आपने मेरे सामने कुछ बनने की चुनौती रख दी है। अब अपनी साधारणताओं को और गहरा आयाम देना ही पडेगा।? अपने आप में मशगूल रहने के, तथा खुद को श्रेष्ठ समझकर प्रदर्शित करने के इस युग में, दूसरों के बारे में इतनी आस्था, इतना अपनापन रखना, अपने लेखन द्वारा इसे प्रदर्शित करना, कभी-कभार ही दिखता है। सरलादी यह कहती हैं। दूसरों को बडा कहने के लिए मन विशाल होना चाहिये। सरलादी के पास ऐसा विशाल मन है। वे दूसरों के साथ विलक्षण सहजता से घुलमिल जाती हैं। जब हमारा साक्षात्कार कभी एक दूसरे से नहीं हुआ, पर उन्होंने हम दोनों के बीच का अंतर बडी सहजता से कम किया; तब जिनके साथ उन्होंने प्रत्यक्ष वार्तालाप किए, जिनके लेखन से वे प्रभावित हुईं, जिन्होंने साँसों को इत्र की तरह सुगन्धित करने वाले अनुभव दिए, उनके बारे में वे तन्मयता से, आत्मीयता से लिखेंगी, इसमें कोई आश्चर्य नहीं। कन्हैयालाल मिश्र-प्रभाकर, डॉ. हरिवंशराय बच्चन, महादेवी वर्मा, विष्णु प्रभाकर, बशीर अहमद ..... किस किस का नाम लें ? ?स्मृतियों का सफर? का हर लेख उन्होंने इतनी तन्मयता से लिखा है कि पाठक को लगता है, वह जैसे सरलादी की अँगली पकडकर उनके साथ मयूख जी, महादेवी जी, वधान जी .......... सबको देख रहा है, सुन रहा है, उनके साथ बोल रहा है। सरला दी दिल की इतनी साफ हैं, कि अंतर रखना, रुखेपन से पेश आना, उन्हें आ ही नहीं सकता। उनका सारा व्यवहार, निःसंकोच, खुले दिल से किया हुआ होता है। मुझे लगता है, इसी कारण, उनकी लघुकथाओं की अपेक्षा, दीर्घकथाएँ (कहानियाँ) अधिक मार्मिक, भावोत्कट, रसोत्कट बनी हैं। लघुकथा विधा की माँग सटीकता की, संक्षिप्तता की। सरलादी तो खुले दिल की ठहरीं। वे जैसा बोलेंगी, वैसा ही लिखेंगी। दिल खोलकर बोलेंगी। विस्तार से बोलेंगी। इसलिए कहानी विधा पर उनका प्रभुत्व, लघुकथा से अधिक होना, स्वाभाविक है। वातावरण निर्मिती, स्वभाव परितोष, प्रत्यक्षदर्शी वर्णन ये सारी विशेषताएँ उनकी कहानियों में स्पष्ट रूप से पाया जाता है। लघुकथा में इसके लिए कोई गुंजाइश नहीं होती। अर्थात् यह मेरी प्रतिक्रिया है। उनकी लघुकथाएँ भी उत्कृष्ट होने की बात, कई पाठकों ने की हैं। उनका ?दिन दहाडे? लघुकथा संग्रह पुरस्कृत भी हुआ है। सरला दी की पच्चीस हास्य-व्यंग्य रचनाएँ ?टाँय-टाँय फिस्स? में संकलित हैं। इस संदर्भ में डॉ. दयाकृष्ण विजयवर्गीय की तरह मुझे भी लगता है, कि विषय हास्यप्रधान होते हुए भी ये रचनाएँ, अपेक्षानुसार हास्यकारक नहीं हुई हैं। मैंने इसका कारण ढूँढने का प्रयास किया। विचार करने पर मुझे लगा कि किसी की त्रुटियाँ दिखाना, व्यंग्य पर उँगली रखना, उनके बस की बात नहीं है। अर्थात् उनके ये लेख उतने हास्यप्रधान नहीं हैं, तो क्या हुआ ? पाठक को उन लेखों से नई प्रेरणा तो मिलती है। मार्गदर्शक जीवनानुभव तो मिलते हैं, यह क्या कम है ? व्यावहारिक जगत् में जीने की नई दृष्टि निश्चित रूप से मिलती है। डॉ. दयाकृष्ण विजयवर्गीय के कथनानुसार इन रचनाओं को ललित, भावपूर्ण, वैचारिक निबन्धों में गिना जा सकता है। ?व्यवहार आपका सुझाव हमारे? यह व्यवहार विज्ञान की पुस्तक है। पति-पत्नी के बीच आने वाली, दाम्पत्य जीवन में दरार लाने वाली समस्याएँ, सरलादी ने बडी बखूबी समझ ली हैं। व्यक्ति कुटुम्ब, समाज इनमें पड रही दरारें मिटाकर जीवन आनन्दित करने के स्तुत्य उपाय उन्होंने यहाँ सुझाये हैं। यह पूरा लेखन उन्होंने बडी ही शालीनता से, सुसंस्कृत भाषा में, जीवन के आश्चर्यों को, रहस्यों को स्पर्श करते हुए किया है। उनका यह लेखन पढने पर लगता है, कि मार्गदर्शक की यशस्वी भूमिका निभाना, उनके व्यक्तित्व का एक प्रकाशमान पहलू है। इसीलिए इस पुस्तक का अब दूसरा संस्करण छप रहा है। ?अंतर्ध्वनि? सरला दी का कविता संग्रह है। इसका शीर्षक जितना सार्थक है, अर्पण पत्रिका भी उतनी ही वैशिष्ट्यपूर्ण है। ?विश्वशांति? के प्रसार में योगदान देने वाली सभी कवियों को उन्होंने यह संग्रह अर्पण किया है। अपने मन की आस को प्रकट करते हुए, ?मेरी व्यथा? कविता में उन्होंने लिखा है - मन चाहता है बाँधना-विश्व को बंधुत्व में, चाहता है तोडना सीमा धरा की, धर्म की, जाति रंग भेद की सरलादी की विचारधारा इसमें व्यक्त होती है। स्वतंत्रता के बाद हम ऐसा कुछ प्राप्त न कर सके, इसके लिए वे दुःखी भी हैं। स्वतंत्रता के बाद पचास वर्षों की कालावधि में हमने क्या किया ? वह कहती हैं - क्या किया हमने इस अर्से में गिना रहे अनगिनत उपलब्धियाँ ऐसा हो रहा है, इस बात का उन्हें खेद है, पर वे, निराशावादी, वैफल्यग्रस्त या सिनिक नहीं हैं। ?अंतर्ध्वनि? की प्रस्तावना में वे कहती हैं, ?आज की मूल्यहीनता, शक्ति की निरंकुशता, अपसंस्कृति के आक्रमण एवं सामाजिक विसंगतियों ने मुझे विशेष रूप से उद्धेलित किया है, फिर भी आशा की एक किरण, घटाघोप अंधकार म भी मुझे सदैव दिखती रही है। वे लिखती हैं - उमड घुमड जब बरसेंगे मेघ हरियाली छा जाएगी डाल-डाल पात-पात फिर से लहराएँगी या ?तुम बसंत हो सरसों? में वे लिखती हैं - क्या कर लेगी पतझड, फिर से महकेगा उपवन सृष्टि का क्रम यही है, महक उठेगा तन-मन इस तरह का आशावाद उनकी अनेक कविताओं में व्यक्त हुआ है। ?अंतर्ध्वनि? की प्रस्तावना में वे कहती हैं, ?मुझे संपूर्ण विश्व एक लगता है, संपूर्ण मानव जाति मेरे लिए महनीय है, इसमें भेदभाव की कहीं कोई गुंजाइश नहीं ....... अपने देश से मुझे अनन्य प्रेम है। ?उनके अंतरंग से यह ध्वनि निकली है उनकी।? ?अंतर्ध्वनि? .... बाह्य जगत् का अनुभव संवेदनशील मनोवृत्ति से ग्रहण करते हुए उनके अर्न्तमन द्वारा दिया हुआ प्रतिसाद। दुनिया में अन्याय है, शोषण है, दुर्बलों को दबोचने की प्रवृत्ति है, पर वे कहती है, कभी ना कभी, इसका अंत होगा। सूर्य को राहू ने ग्रसा है, पर कभी तो सूर्य बाहर निकलेगा अपनी प्रखर किरणों से तम को हरेगा। ईश्वर पर सरलादी की अपार श्रद्धा है। वे लिखती हैं, ?मन में सदैव विश्वास जमा रहता है, कि वह जो कुछ भी करता है, हमारी भलाई के लिए ही करता है। समस्त विश्व उसके द्वारा ही संचालित और व्यवस्थित है। वह जो कुछ है, उन्हें जो भी मिला है, वह उसी की कृपा है। उन्होंने आगे चलकर लिखा है, ?जब कभी मुझे बाह्य विरोधों का सामना करना पडा, तब तब मैं, उसके द्वारा गहन आंतरिक संतोष से पुरस्कृत भी हुई हूँ। मुझे लगता है, बाह्य कष्ट और कठिनाइयाँ, हमारी अन्तर्निहित संकल्प और शक्ति को और भी दृढ कर देती हैं, जो हमें और अच्छा करने तथा आगे बढने के लिए प्रेरित करती हैं। ?सरलादी का यह दृष्टिकोण, खुली आँख से रखी श्रद्धा ही है। वे सश्रद्ध हैं जरूर, किन्तु अंधःश्रद्ध नहीं। उनकी श्रद्धा उन्हें प्रयत्नवाद की ओर ले जाती है। उनमें दृढता, सहनशीलता निर्माण करती है। सरला दी की कलम ने विभिन्न विधाओं में लेखन किया है। पर लगता है, उन्हें खास तौर पर पसन्द है कथाविश्व! ?मुझे बेला से प्यार है?, ?भोर की किरण?, ?मुट्ठी भर उजास?, ?सुबह होगी जरूर?, ?धूप उदास है?, ?मंजल की ओर?, ?यह तो आगाज है?, ?चर्चित कहानियाँ? और अभी-अभी प्रकाशित, ?माँ के लिए? ये कथा संग्रह उनके नाम पर हैं। दुनिया की वास्तविकता का सजगता से निरीक्षण, उसका संवेदनशीलता से किया हुआ चित्रण, ये सरलादी के लेखन की विशेषताएँ हैं, फिर भी उनका लेखन सिर्फ वास्तववादी नहीं है। वे अपनी व्यक्ति रेखाओं के सहारे पाठकों को आदर्शवाद की ओर ले चलती हैं। उन्हें सत्य, शिव, सुन्दरता की आस है। भारतीय संस्कृति पर उन्हें गर्व है। अपनी संस्कृति में, व्यक्ति एवं जीवन को उन्नत करने वाले मूल्यों को कायम रखने की उन्हें चाह है। आज का समाज भोगवादी होता जा रहा है। पाश्चात्यों का अंधानुकरण करके अपने शाश्वत मूल्यों का विध्वंस करता जा रहा है। इससे वे बेचैन होती हैं। ?वटवृक्ष? जैसी उनकी चर्चित कथा या अन्य कई कहानियों में यही आशय दिखाई देता है। सरला दी की कहानियों में सामान्यतः मध्यमवर्ग का चित्रण नजर आता है। फिर भी श्रमिक, दीन, शोषित वर्ग की जीवन शैली पर विशेषतः उस वर्ग की महिलाओं पर आधारित उत्तमोत्तम कथाएँ भी उन्होंने बडी मात्रा में लिखी हैं। ये महिलाएँ अपनी गृहस्थी, परिवार, बच्चे और उनके उज्ज्वल भविष्य के लिए संघर्ष करती हैं। श्रम करती हैं। फिर भी उन पर अन्याय होता है। उनका शोषण होता है। बाहर वालों के साथ कभी कभी घर के लोग भी उनमें शामिल हैं। पर वे निडर होकर परिस्थिति से, अन्याय करने वालों के साथ मुकाबला कर रही हैं। ?स्वावलम्बन?, ?बाँझ?, ?तिवरा जल गईल?, ?एक और पद्मिनी या द्रौपदी? जैसी कथाएँ इस दृष्टि से पठनीय हैं। वे घर-परिवार, बच्चों के लिए बहुत कष्ट उठाती हैं। फिर भी सामान्य सुख शांति भी उनके भाग्य में नहीं है। ?तिवरा जल गईल? की नायिका अंधश्रद्धा की शिकार है। ?बाँझ? कहानी की नायिका लाजो, अपना परिवार पालने के लिए, बच्चों को सास के पास छोडकर, दूसरे गाँव में काम कर रही है। सास की बेपरवाही से बच्चे बीमार होकर मर जाते हैं। उसने बच्चे बंद होने का ऑपरेशन करवाया है, इसलिए सास उसे ?बाँझ? कहकर बार-बार ताने मारती हैं। लाजो डॉक्टरनी से अपना ऑपरेशन खुलवा लेती है। बाद में उसे पता लगता है, उसके मरद ने भी पैसे के लालच में आकर नसबन्दी का ऑपरेशन करवाया है, एक बार नहीं, दो बार। अब उपाय बचा है, सिर्फ टेस्ट ट्यूब बेबी का। इस उपाय को अपनाने के लिए वह अपने पति के सामने हाथ जोडती है। गिडगिडाती है। लेकिन पति तो आखिर पति ही ठहरा। उसकी इज्जत को, पौरुषत्व के अभिमान को ठेस पहुँचेगी। वह भला क्यों मानता ? वह आगबबूला होकर चिल्लाता है, ?साली हरामजादी ! तू दूसरे का बच्चा पेट में पालेगी ? मैं तुझे जान से मार डालूँगा। तुझे घर से निकाल दूँगा।? असल में घर भी तो लाजो का ही है। पति के चिल्लाने पर वह भी बरस पडती है, ?तुम्हें जरा भी शर्म नहीं आती ? जो भी मन में आए, उल्टा-सीधा बोले जा रहे हो। तुम्हारी माँ मुझे ?बाँझ? कहकर ताने मारती थी, तब तुमने कभी कहा, कि तुम भी मेरी तरह बाँझ हो ? अब तुम दूसरी बीवी ला रहे हो ? क्यों ? उसे बाँझ ठहराने ? दूसरों की नजरों में तुम पूर्ण पुरुष रहोगे। मर्द बनोगे। अपनी खामियों को ढंकने के लिए दूसरों की आँख में धूल झोंककर तुम घर में रखैल रख सकते हो, तो क्या मैं तुम्हारी शादीशुदा औरत, तुम्हारा वंश चलाने के लिए डॉक्टर की मदद से, अपनी कोख से बच्चे को जनम नहीं दे सकती ?? ऐसी है लाजो। निडर। विवेकी। परिस्थिति का मुकाबला करने का सामर्थ्य है उसमें। दुर्दम्य स्वाभिमान है। तमाशबीनों को भी मानना पडा, उसके कहने में सच्चाई है, तथ्य है। ऐसी लाजो..... नैसर्गिक वात्सल्य भावनानुसार बच्चे के लिए तडपती, छटपटाती लाजो, पाठकों को भी आकुल कर देती है। ?एक और पद्मिनी या द्रौपदी? की नायिका ?मणकी? भी सरलादी की श्रेष्ठ निर्मिती है। मणकी की शादी उनकी परम्परानुसार पालने में ही हुई थी। सयानी होने पर वह ससुराल आ जाती है। पति बीमार रहता है, पर उससे बेहद प्यार करता है। उसे एक लडकी हुई है। घर में सास, जेठ, जेठानी, देवर, बहुत से सदस्य हैं। मणकी घर का सारा काम निबटाकर, पति की सेवा करती है। फुर्सत में सिलाई-कढाई का काम सीखती है। सिलाई का काम करके पैसे भी कमाती है। कुछ समय बाद उसके पति की मौत होती है। उसके जेठ लालची दृष्टि से उसे देखते हैं, वे उसकी शादी अपने छोटे भाई से करने की योजना बनाते हैं, ताकि इतनी काम करने वाली, साथ-साथ पैसे भी कमाने वाली मणकी घर में ही रहे और उनका भी काम चले। मणकी के देवर की उम्र सिर्फ दस-बारह साल की है। उसने उसे बेटे की तरह पाला है, इसलिए वह इस योजना को नकारते हुए मैके चली जाती है। मैके में भी वह अपने पिता पर बोझ बनकर नहीं रहती। वहाँ मणकी, भैंस चराना, गोबर थापना, दूध निकालना जैसे काम करती है। बच्ची के भविष्य के लिए वह सिलाई- कढाई करके पैसे जोडती है। मणकी का जेठ गाँव वालों की मदद से मणकी का अपहरण करते हैं, किन्तु मणकी डरती नहीं। वह दुर्गा का रूप धारण करती है। कोने में पडी कुल्हाडी को उठाती है। आगे बढने पर मौत के घाट उतारने की भाषा बोलती है। आखिर सास पुलिस को बुलाकर मणकी को, अपने बेटों के शिकंजे से छुडवाती है। मणकी, कृतज्ञता से कहती है, उस समय भगवान ने सास के रूप में उसकी सहायता की। नहीं तो सचमुच उसे पद्मिनी होना पडता, या फिर द्रौपदी। कहानी का शीर्षक भी अर्थवाही एवं मार्मिक है। सरला दी की सृजित की हुई नायिका ऐसी धैर्यशाली हैं। दृढ निश्चयी हैं। मेहनती तो हैं ही ! परम्परा तथा आधुनिकता का मनोहारी समन्वय उनमें है। ऐसा लगता है, अपने व्यक्तित्व के एक-एक अंश से उन्होंने ये नायिकाएँ सृजित की होंगी। सरला दी के लेखन का झपट्टा शायद पढने वालों को हैरान करेगा। कितनी तेजी से लिखती हैं वे। स्कूल-कॉलेज में वे लेखन करती थीं। १९५४ में उनका विवाह संयुक्त परिवार में हुआ। पारिवारिक जम्मेदारियाँ निभाते-निभाते उनका साहित्य से जुडाव सिर्फ पढने तक ही सीमित रहा। १९७२ के पश्चात् उन्होंने फिर से कलम हाथ में लिया .... अर्थात् साहित्य सृजन के लिए। उनकी कहानियाँ, कविताएँ, लेख प्रतिष्ठित शीर्ष पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगे। १९९२ में उनका प्रथम कहानी संग्रह ?मुझे बेला से प्यार है?, प्रकाशित हुआ। उसके बाद, आज तक उनके दस कहानी संग्रह, तीन उपन्यास, एक आत्मकथन, एक वैचारिक लेख संग्रह, एक संस्मरण, प्रकाशित हुए हैं। वे लोकप्रिय हो गईं। एक सर्जनशील लेखिका और रसिक पाठक के रूप में हिन्दी साहित्य जगत् में उनकी पहचान बन गई। सिर्फ इतना ही नहीं, साहित्य के विभिन्न सम्मान उन्हें प्राप्त हुए। कला भारती संस्थान-कोटा, श्री मौजीबाबा लोक कल्याण ट्रस्ट, अखिल भारतीय साहित्य परिषद्-चित्तौड संस्थाओं द्वारा उन्हें सम्मानित किया गया है। ?साहित्य कौस्तुभ?, ?कथा कौस्तुभ? आदि उपाधियों से भी उन्हें अलंकृत किया गया है। उनकी अनेक कहानियों को पुरस्कार प्राप्त हुआ है। ?एक कतरा धूप? इस उपन्यास के लिए विक्रमशिला विद्यापीठ- गाँधीनगर से उन्हें ?विद्या वाचस्पति? (पीएच.डी.) उपाधि भी प्राप्त हुई है। सरलादी का व्यक्तित्व बहुआयामी है। उमर के साथ गले पडे बी.पी. और स्लिप डिस्क जैसे साथियों का लाड-दुलार या उनकी मुँहजोरी बर्दाश्त करते हुए भी, सरलादी इतना कुछ, कब कर पाती हैं, मैं समझ नहीं पा रही हूँ। लेखन-पठन, साहित्य समारोहों में सहभाग, संगोष्ठी, परिसंवाद, भाषण, छोटे-बडे शोध निबन्ध कितना कुछ करती हैं वे ! इतना सब करते हुए, पता नहीं, वास्तुशास्त्र के बारे में पढने-लिखने को, वे समय कहाँ से जुटा पाती हैं ? उनसे मुलाकात होने के बाद, पहला यही सवाल मैं उनसे पूछने वाली हूँ ! वे केवल इस विषय में पढती, या स्फुट लेखन करती हो, ऐसा नहीं है। इस विषय पर उनकी, ?वास्तु दर्शन?, ?भारतीय वास्तु विज्ञान?, ?वास्तु प्रभाव?, ?वास्तु प्रयोग?, ये चार पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। इन पुस्तकों के बारे में, इस विषय के विशेषज्ञों ने गौरवमयी समीक्षा भी की है। ?राजस्थान पत्रिका? ने उनके ?वास्तु दर्शन? किताब के बारे में लिखा है, ?हिन्दी में यह प्रथम पुस्तक है, जिसमें विदिशा भूखण्डों पर निर्माण के लिए विशद् सूक्ष्म जानकारी दी गई है तथा पुस्तक को वैज्ञानिक आधार प्रदान किया है। वास्तुशास्त्र का अध्ययन, उस पर लेखन, इस संदर्भ में अगर किसी को समस्या हो, तो उन्हें मार्गदर्शन, उनके साथ सलाह-मशवरा ..... कितना कुछ करती हैं वे। साहित्य क्षेत्र की तरह, वास्तुक्षेत्र में भी उनका सम्मान हुआ है। ?वास्तु मार्तंड?, ?वास्तु रत्न?, ?वास्तु महर्षि, ?वास्तु वाचस्पति? आदि उपाधियों द्वारा उन्हें इस क्षेत्र में गौरवान्वित किया गया है। इतना सब कुछ कहने पर, शायद आपने सोचा होगा, अब सरलादी की पहचान खत्म हुई होगी। नहीं जी ! अब भी बहुत कुछ कहना बाकी है। उन्हें अपने साहित्य सृजन की जितनी आकांक्षा थी, उतनी ही सामाजिक उत्तरदायित्व की चाह थी। कोटा में ?लायनेस क्लब? की स्थापना के साथ सरलादी सामाजिक कार्यों के परिक्षेत्र में आ गईं। इस क्लब की स्थापना में भी उनका योगदान रहा है। कोटा और मेरठ के लायनेस क्लब के जरिये उन्होंने जरूरतमंदों की काफी मदद की है। लायनेस क्लब तथा कोटा के ?वनिता विकास? के माध्यम से उन्होंने पर्दे में घुट रही महिलाओं को, उजाले में लाने का काम किया है। केवल मनोरंजन की परिधि से उन्हें बाहर निकालकर विविध विषयों पर बोलने के लिए, उनका आत्मविश्वास बढाने के लिए उन्हें प्रवृत्त किया है। उनके लिए विभिन्न स्पर्धाओं का, उपक्रमों का आयोजन किया है। वे कोटा के विभिन्न सामाजिक शैक्षणिक संस्थाओं से भी जुडी हुई हैं। लायनेस क्लब कोटा तथा मेरठ की ओर से, जो स्मरणिकाएँ प्रकाशित हुई, उनमें से बहुत सारी उनके द्वारा संपादित की हुई हैं। उनमें से तीन स्मारिकाएँ पुरस्कृत भी हो चुकी हैं। सरला दी की बेटी डॉ. गीता बंसल और दामाद डॉ. अविनाश बंसल ?शिशु-स्वास्थ्य? नाम की त्रैमासिक पत्रिका प्रकाशित करते हैं। शिशु-स्वास्थ्य अच्छा रहे, इसलिए उनकी छोटी-मोटी बीमारियाँ, उनके लक्षण, उन पर किए जाने वाले उपचार, चिकित्सा आदि बातों की जानकारी इस पत्रिका में दी जाती है। बच्चों के माता-पिता को यह बातें समझ में आईं, तो बच्चों का संगोपन अधिक समझदारी से होगा, यह सोचकर बंसल दम्पत्ती, निःशुल्क वितरण के लिए यह पत्रिका निकालते हैं। इस पत्रिका के संपादन के लिए सरलादी ने अपनी अवैतनिक सेवाएँ अर्पित की हैं। पिछले सोलह वर्षों से निरन्तर वह इस पत्रिका का संपादन कर रही हैं। सरलादी की लेखन के प्रति निष्ठा, अथक परिश्रमों से की गई तैयारी, युवाओं से बढकर है। ?डॉ. सुभाष आर्य?, उनके दामाद डॉ. अविनाश बंसल के स्नेही, ?शिशु स्वास्थ्य? पर अपनी अंग्रेजी में लिखी हुई किताब का हिन्दी में रूपान्तरण कराना चाहते थे। सरलादी ने बडी खुशी से यह जम्मेदारी निभाई। पौ फटने से पहले वे इस कार्य में लग जातीं और रोज तीन घंटे तक यह काम करती थीं। दो महीनों में उन्होंने ३०० पृष्ठों की यह किताब पूर्णतः रूपान्तरित की। यह किताब ?बच्चे और उनकी देखभाल? नाम से प्रकाशित हो गई। अपनी लेखन निष्ठा के बारे में वे लिखती हैं, ?१९७० के बाद जब मैंने फिर से लिखना शुरू किया, तब लेखन का यह सिरा मैंने छूटने नहीं दिया। अनेक तनाव, संघर्षमय परिस्थिति, बीमारी इन सबके बावजूद बिस्तर पर पडे हुए भी मैंने लेखन किया और वह प्रकाशित भी हुआ।? सरला दी की शादी १९५४ में हुई थी। ससुराल जाते वक्त, वे अपने सितार और तबला ले गई थीं। उसी तरह की बनाई हुई चौबीस पेंटिंग्ज भी ले गई थीं। ये सभी चित्र उन्होंने अपने कमरे में लगवा दिए। घर वाले उनके कमरे को ?आर्ट गैलेरी? कहने लगे। उनकी सिलाई-बुनाई की भी खूब तारीफ हुई। सितार और तबले को एक कोने में जगह मिली। बेचारा..... सरलादी से जब मिलूँगी, तब पूछूँगी, ?दीदी.....दीदी..... कलम की तरह कभी सितार पर भी आपका हाथ फेरा जाता है क्या ? कभी-कभार तूलिका के रंगों से, अभी भी रंगा जाता है क्या ? अब भी ये सब करने को मन चाहता है क्या ? मन ने चाहा, तो भी इस के लिए आप समय जुटा पा सकती हैं क्या ? कैसे ? साहित्य सृजन की व्यस्तता में, अन्य कला साधना की ओर ध्यान देने के लिए उनके पास समय हो या न हो, पर उनके आस्वाद के लिए वे समय जरूर निकालती होंगी। विभिन्न कलाओें से, साहित्य सृजन से, स्वाध्याय से उन्होंने अपना जीवन आनन्दमयी बनाया। जन सम्फ से, अनुभव सम्पन्नता से, हर अनुभव को खुली आँखों से देखते हुए, अपना जीवन सम्पन्न बनाया। प्रयत्नपूर्वक ऐसा समृद्ध जीवन जीने वाली मेरी सरलादी सचमुच महान् हैं। उनके लिए ?जीवेत शरदः शतम्? यही प्रार्थना करती हूँ। साथ-साथ यह भी प्रार्थना करती हूँ कि ?शत शरद? उन्हें हमेशा सुखी, समृद्ध एवं कार्य प्रवण रखें। वे हमेशा तृप्त रहें। आनन्दमय जीवन जीयें।

0 comments:

Post a Comment

 
MySpace Backgrounds