लेखिकेची संपुर्ण माहिती इथे पहा

Sunday, March 21, 2010

पुरस्कार

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नव कृष्णा व्हॅली कला महाविद्यालय, सांगली यांच्यातर्फॅ जागतीक महिला दिनानिमित्य
स्व.बबीबाई सुरजमल लुंकड यांच्या स्मरणार्थ सुपर वुमन पुरस्कार देण्यात आले.
ब्लॉगच्या लेखिका सौ . उज्ज्वला केळकर यांना ही त्यांच्या साहित्यातील कामगिरीबद्दल या पुरस्काराने सन्मानित करण्यात आले.

त्यांचे अभिनंदन
अमोल केळकर

Wednesday, March 3, 2010

कृष्णस्पर्श...

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देशमुख जी की हवेली के पास ही उनका अपना मुरलीधर जी का मंदिर है। भगवान् कृष्ण की जन्माष्टमी का उत्सव होने के कारण मंदिर भक्तों से खचाखच भरा हुआ था। सुबह प्रवचन, दोपहर कथा-संकीर्तन, रात में भजन, एक के बाद एक कार्यक्रम संपन्न हो रहे थे। उत्सव का आज छठा दिन था। आज माई फडके का कीर्तन था। रसीली बानी, नई और पुरानी बातों का एक दूसरे से सहज सुंदर मिलाप करके निरूपण करने का उनका अनूठा ढंग, ताल-सुरों पर अच्छी पकड, सुननेवालों की आँखों के सामने वास्तविक चित्र हूबहू प्रकट करने का नाट्यगुण, इन सभी बातों के कारण कीर्तन के क्षेत्र में माई जी का नाम, आज कल बडे जोरों से चर्चा में था। वैसे उनका घराना ही कीर्तनकारों का ठहरा। पिता जी हरदास थे। माँ बचपन में ही गुजर गई थी। अतः कहीं एक जगह घर बसा हुआ नहीं था। पिता जी के साथ गाँव गाँव जा कर कीर्तन सुनने में उनका बचपन गुजर गया। थोडी बडी होने पर पिता जी के पीछे खडी होकर उनके साथ भजन गाने में समय बीतता गया। पिता जी ने जितना जरूरी था, पढना-लिखना सिखाया। बाकी ज्ञान उन्होंने, जो भी किताबें हाथ लगीं, पढकर तथा पोथी-पुराण पढकर आत्मसात् किया। तेरह-चौदह की उम्र में उन्होंने स्वतंत्र रूप से कीर्तन करना शुरू किया। क्षणभर के लिए माई जी ने अपनी आँखें बंद की और श्लोक प्रारंभ किया। वसुदेवसुतं देवं कंसचाणूरमर्दनं देवकी परमानंदं कृष्ण वंदे जगद्गुरुं।। उनकी आवाज सुनते ही मंदिर में जमे भक्तों ने आपस की बातचीत बंद करते हुए अपना ध्यान माई जी की ओर लगाया। माई जी ने सब श्रोताओं को विनम्र होकर प्रणाम किया और विनती की, ��आप सब एकचित्त होकर अपना पूरा ध्यान यहाँ दें, तथा आप कृष्ण-कथा का पूरा आस्वाद ले सकेंगे। कथा का रस ग्रहण कर सकेंगे। आप का आनंद द्विगुणित, शतगुणित हो जाएगा।�� उन्होंने गाना आरंभ किया राधेकृष्ण चरणी ध्यान लागो रे कीर्तन रंगी रंगात देह वागो रे मेरा पूरा ध्यान राधा-कृष्ण के चरणों में हो। मेरा पूरा शरीर कीर्तन के रंगों में रँग जाए। कीर्तन ही बन जाए। मध्य लय में शुरू हुआ भजन द्रुत लय में पहुँच गया। माई जी ने तबला-हार्मोनियम बजानेवालों की तरफ इशारा किया। वे रुक गए। पीछे खडी रहकर माई जी का गाने में साथ करनेवाली कुसुम भी रुक गई। माई जी ने निरूपण का अभंग गाना शुरू किया। आज उन्होंने संकीर्तन के लिए चोखोबा का अभंग चुना था। ऊस डोंगा परि रस नोहे डोंगा। काय भुललासी वरलिया रंगा।। (ईख टेढामेढा होता है, पर रस टेढा नहीं होता। वह तो सरल रूप से प्रवाहित होता है। तो बाहर के दिखावे के प्रति इतना मोह क्यों?) माई जी को कीर्तन करते हुए लगभग बीस साल हो गए। वाई में कृष्णामाई के उत्सव में माई जी के पिता जी को आमंत्रण दिया गया था। माई जी की उम्र उस वक्त करीब सत्रह-अट्ठारह की थी। अपने पिता जी के पीछे रहते हुए मधुर सुरों में गानेवाली यह लडकी, कीर्तन सुनने आयी हुई आक्का को बहुत पसंद आई। उन्होंने माई जी के पिता जी, जिन्हें सब आदरपूर्वक शास्त्री जी कहकर संबोधित करते थे, के पास अपने लडके के लिए, माई का हाथ माँगा। वाई में उन की बडी हवेली थी। पास के धोम गाँव में थोडी खेती-बाडी थी। वाई के बाजार में स्टेशनरी की दुकान थी। खाता-पिता घर था। इतना अच्छा रिश्ता मिलता हुआ देखकर शास्त्री जी खुश हो गए। आए थे कीर्तन के लिए, पर गए अपनी बेटी को विदा करके। शादी के चार बरस हो गए। आक्का और आप्पा, माई जी के सास-ससुर, उनसे बहुत प्यार करते थे। पर जिसके साथ पूरी जिंदगी गुजारनी थी, वह बापू, एकदम नालायक-निकम्मा था। अकेला लडका होने के कारण, लाड-प्यार से, और जवानी में कुसंगति से वह पूरा बिगड चुका था। वह बडा आलसी था। वह कोई कष्ट उठाना नहीं चाहता था। शादी के बाद बेटा अपनी जिम्मेदारियाँ समझ जाएगा, सुधर जाएगा, आक्का-आप्पा ने सोचा था, किन्तु उनका अंदाजा चूक गया। घर-गृहस्थी में बापू की कोई दिलचस्पी नहीं थी। अपने यार दोस्तों के साथ घूमना फिरना, ऐश करना, इसमें ही उसका दिन गुजरता था। अकेलापन महसूस करते करते माई जी ने सोचा, क्यूँ न अपना कथा-संकीर्तन का छंद बढाए? किन्तु बापू ने साफ इन्कार कर दिया। उसने कहा, ��यह गाना बजाना करके गाँव गाँव घूमने का तुम्हारा शौक मुझे कतई पसंद नहीं। तुम्हें खाने-पीने, ओढने-पहनने में कोई कमी है क्या यहाँ?� माई के पास कोई जबाव नहीं था। आक्का और आप्पा जी की छाया जब तक उनके सिर पर थी, तब तक उन्हें किसी चीज की कमी नहीं महसूस हुई। पर क्या जिंदगी में सिर्फ खाना-पीना, पहनना-ओढना ही पर्याप्त है किसी के लिए? खासकर के किसी औरत के लिए? औरत के केंद्र में सिर्फ उसका पति ही तो होता है न? यहाँ पति के साथ मिलकर अपने परिश्रमों से घर-गृहस्थी चलाने का, सजाने का सुख माई को कहाँ मिल रहा था? बापू बातें बडी बडी करता था, किन्तु कर्तृत्व शून्य! कहता था, ��जहाँ हाथ लगाऊँगा, वहाँ की मिट्टी भी सोने की कर दूँगा।�� ऐसा बापू कहता तो था, किन्तु कभी किसी मिट्टी को उसने हाथ तक नहीं लगाया। कुछ साल बाद पहले आप्पा और कुछ दिन बाद, आक्का का भी देहांत हो गया। अब बापू को रोकने-टोकनेवाला कोई नहीं रहा। अपने यार-दोस्तों के साथ उसका जुआ खेलना बढ गया। अब आप्पा-आक्का के गुजरने के बाद उसने घर में ही जुए का अड्डा बना दिया। झूठ मूठ के बडप्पन के दिखावे के लिए, हर रोज यार-दोस्तों को घर में ही खाना खिलाना शुरू हो गया। दारू शारू पार्टी, गाना-बजाना, तवायफों का नाचना दिन-ब-दिन बढता ही गया। धीरे-धीरे खेत, दुकान, यह सब बेचकर आये हुए पैसे, चले गए। अब कोई चारा नहीं, देखकर माई ने कीर्तन की बात फिर से सोची। ऐसे में भी बापू तमतमाया, ��मेरे घर में ये कीर्तनवाला नाटक नही चाहिये�� ��तो ठीक है। मैं घर ही छोड देती हूँ। आपका घर आफ दोस्त, सब आपको मुबारक। गले लगाकर बैठिए। घर का सारा सामान खत्म हुआ है। आपकी और मेरी रोजी रोटी के लिए बस, मैं इतना ही कर सकती हूँ।�� माई ने जबाव दिया। और कोई चारा न देखकर बापू चुप रहा। स्वयं उसे, कोई काम करने की आदत तो थी नहीं। माई ने ग्रंथ-पुराण-पोथी पढना प्रारंभ किया। हार्मोनियम, तबला, झांज बजानेवाले साथी तैयार किए। कथा-कीर्तन का अभ्यास, सतसंग करना शुरू किया। शुरू में अपने गाँव में ही कीर्तन करना उन्होंने प्रारंभ किया। बचपन में वह कीर्तन करती ही थी। मध्यांतर में सब छूटा था। किन्तु जब उन्होंने ठान लिया, की बस्स, अब यही अपने जीवन का सहारा है, उन्हें छूटा हुआ पहला धागा पकडने में कोई कठिनाई नहीं महसूस हुई। देखते देखते उनकी ख्याति बढ गई। धीरे-धीरे पडोस के गाँवों में भी उन्हें आदरपूर्वक कथा-कीर्तन के लिए आमंत्रण आने लगा। कीर्तन के लिए जाने से पहले, या आने के बाद घर में कभी शांति या चैन की साँस लेना उन्हें नसीब नहीं होता। जब तक माई घर में होती, बापू कुछ न कुछ पिटपिटाता, झगडता रहता। पर माई का मन जैसे पत्थर बन गया था। वह न कुछ जबाव देती, न किसी बात का दुःख करती। आये दिन वह अधिकाधिक स्थितप्रज्ञ होती जा रही थी। अब बापू के मित्र भी उसे छोड गए थे। बापू के पास कुछ भी बचा नहीं था। खेत चिडया चुग गई थी। बाद में बापू बीमार हो गए। साँस लेना भी दुष्कर हो गया। जितना हो सके, माई पत्नी का कर्त्तव्य निभाती रही। बापू की सेवा करती रही, किन्तु पति-पत्नी में प्यार का रिश्ता कभी बना ही नहीं था। अपने जीवन का अर्थ तथा साफल्य माई ने कीर्तन में ही खोजा। उनका सूनापन कीर्तन से ही दूर होता रहा। ऐसे में एक दिन बापू का स्वर्गवास हो गया। स्वर्गवास या नरकवास पता नहीं, किन्तु बापू चल बसे। माई अब एकदम निःसंग हो गई। ऐसे नालायक, गैर जिम्मेदार पति से कोई संतान नहीं हुई, इस बात की उन्हें खुशी ही थी। ससुराल की किसी भी बात की निशानी न रहे, इसलिए वाई का घर-बार बेचकर वह हमेशा के लिए नासिक चली गई। माई जी को कीर्तन करते हुए लगभग बीस साल हो गए। उनका नाम हो गया। कीर्ति बढ गई। हर रोज कहीं ना कहीं कीर्तन के लिए आमंत्रण आता था, या आने-जाने में दिन गुजरता था। आज देशमुख जी के मंदिर में उनका कीर्तन है। निरूपण के लिए उन्होंने संत चोखोबा का अभंग चुना था। उस डोंगा परि रस नोहे डोंगा। काय भुललासी वरलिया रंगा। (ऊस टेढा-मेढा होता है। मगर उस का रस टेढा-मेढा नहीं होता, ऐसे में तुम ऊपरी दिखावे पर क्यों मोहित हो रहे हो माई ने जैसे ही पहला चरण गाया, उनके पीछे खडी कुसुम ने सम पकडकर स्वर बढाया। कुसुम आलाप-तान ले लेकर गाने लगी, नदी डोंगी परि जल नाही डोंगे। (नदी टेढी-मेढी बहती है, पर जल टेढा नहीं होता।) देखते देखते पूरा सभामंडप कुसुम के सुरों के साथ तदाकार हो गया। सुरीली, साफ, खुली, खडी आवाज, फिर भी इतनी मिठास, मानो कोई गंधर्वकन्या गा रही हो। श्रोताओं को लगा, यह गाना पार्थिव नहीं, स्वर्गीय है। ये आलौकिक स्वर जिस कंठ से झर रहे हैं, वह मनुष्य नहीं, मनुष्य देहधारी कोई शापित गंधर्वकन्या है। कुसुम गंधर्वकन्या नहीं थी, किन्तु शापित जरूर थी। कुसुम माई की मौसेरी ननद की बेटी थी। वह पाँच छः साल की थी, तब उसकी माँ दूसरे बच्चे को जन्म देनेवाली थी। प्रसूति के समय माँ अपने जने हुए नवशिशु को साथ लेते हुए चल बसी। कुछ सूझ-बूझ आने के पहले ही घर की जिम्मेदारी कुसुम के नाजुक कंधों पर आ पडी। कली हँसी नहीं, खिली नहीं। खिलने से पहले ही मुरझा गई। वह दस साल की हुई नहीं, कि एक दिन पीलिया से, उसके पिता की मौत हुई। उसके बाद तो, उसके होठ ही सिल गए। साल-डेढ साल उसके ताऊ ने उसकी परवरिश की। अपने तेज और होशियार चचेरे भाई-बहनों के सामने, सातवीं कक्षा में अपनी शिक्षा समाप्त करनेवाली यह लडकी एकदम पगली सी दिखती थी। काली-कलूटी और कुरूप तो वह थी ही। उसे बार-बार अपने भाई-बहनों से तथा उनके स्नेही-सहेलियों से ताने सुनने पडते। ये लोग उसे चिढाते, परेशान करते, उपहास करते हुए, स्वयं का मनोरंजन करते। लगातार ऐसा होने के कारण वह आत्मविश्वास ही खो बैठी। इन दिनों, वह पहले, कुसुम से कुस्मी और बाद में कुब्जा बन गई। कोई उससे बात करने लगे, तो वह गडबडा जाती। फिर उससे गलतियाँ हो जातीं। हाथ से कोई ना कोई चीज गिर जाती। टूटती। फूटती। �पागल� संबोधन के साथ कई ताने सुनने पडते। एक दिन ताऊ जी ने उसे उसका सामान बाँधने को कहा और उसे माई के घर पहुँचा दिया। माई परेशान हो गई। उनकी निःसंग जंदगी में, यह एक अनचाही चीज यकायक आकर उनसे चिपक गई। वह भी कुरूप, पागल, देखते ही मन में घृणा पैदा करने वाली। उसकी जिम्मेदारी उठाने वाला और कोई दिखाई नहीं दे रहा था। कुसुम जैसी काली-कलूटी, विरूप लडकी की शादी होना भी मुश्किल था। माई को लगा, यह लडकी पेड पर चिफ परजीवी पौधे की तरह, मुझसे चिपककर मेरे जीवन का आनंद रस अंत तक चूसती रहेगी। पर अन्य कोई चारा तो था नहीं। उसे घर के बाहर तो नहीं निकाला जा सकता था। दूर की ही सही, वह उनकी भानजी तो थी। मानवता के नाते उसे घर रखना माई ने जरूरी समझा। माई सुसंस्कृत थी। कीर्तन-प्रवचन में लोगों को उपदेश करती थी। अब उपदेश के अनुसार उन्हें बरतना था। कुसुम अंतिम चरण तक पहुँची। चोखा डोंगा परि भाव नाही डोंगा। काय भुललासी वरलिया रंगा। (चोखा टेढा-मेढा है, पर उसके मन का भाव वैसा नहीं। अतः ऊपरी दिखावे से क्यों मोहित होते हो...? ) कुसुम को लगा, अभंग में तल्लीन लोगों से कहे, कुस्मी डोंगा परि गुण नोहे डोंगे...। कुसुम कुरूप है, किन्तु उस का अंतर, उसमें समाये हुए गुण कुरूप नहीं हैं। माई जी ने दोनों हाथ फैलाकर कुसुम को रुकने का इशारा किया। सभागृह में बैठे लोगों को सुध आ गई। कुसुम सोचने लगी, अभंग गाते समय उससे कोई भूल तो नहीं हुई? वह डर गई। गाते समय उसके चेहरे पर आई आभा अब लुप्त सी हो गई। बदन हमेशा की तरह निर्बुद्ध सा दिखने लगा। माई जी ने अभंग का सीधा अर्थ बता दिया। फिर व्यावहारिक उदाहरण देकर, हर पंक्ति, हर शब्द के मर्म की व्याख्या की। �देखिये, नव वर्ष के पहले दिन, गुढी-पाडवा के दिन हम कडुनिंब के पत्ते खाते हैं। कडवे होते हैं, पर उन्हें खाने से सेहत अच्छी रहती है। आरोग्य अच्छा रहता है। आसमान में चमकनेवाली बिजली... उस की रेखा टेढी-मेढी होती है, किन्तु उसकी दीप्ति से आँखें चौंध जाती हैं। नदी टेढी-मेढी बहती है, लेकिन उसका पानी प्यासे की प्यास बुझाता है। एक तृषार्त राजा की कहानी, अपने रसीले अंदाज में उन्होंने सुनाई और अपने मूल विषय की ओर आकर कहा, ��चोखा डोंगा है, मतलब टेढा-मेढा है, काला कलूटा है, पर उसकी अंतरात्मा सच्चे भक्तिभाव से परिपूर्ण है। सभी संतों का ऐसा ही है। ईश्वर के चरणों पर उनकी दृढ श्रद्धा है। अपना शरीर रहे, या न रहे, उन्हें उसकी कतई परवाह नहीं है। उनकी निष्ठा अटूट है।� माई जी ने पीछे देखकर कुसुम को इशारा किया, और कुसुम गाने लगी, देह जावो, अथवा राहो। पांडुरंगी दृढ भावो। यह शरीर रहे, या न रहे। पांडुरंग के प्रति मेरी भक्तिभावना दृढ रहे। सच्ची रहे। फिर एक बार पूरा सभामंडप कुसुम के अलौकिक सुरों के साथ डोलने लगा। माई को थोडी फुरसत मिल गई। माई की बढती उमर आज-कल ऐसे विश्राम की,? फुरसत की, माँग कर रही थी। इस विश्राम के बाद उनकी आगे चलने वाली कथा में जान आ जाती। जोश आ जाता। विगत तीन साल से कुसुम माई के पीछे खडी रहकर उनका गाने का साथ दे रही है। माई जी निरूपण करती है और बीच में आनेवाले श्लोक, अभंग, ओवी, साकी, दिण्डी, गीत सब कुछ कुसुम गाती है। उसकी मधुर आवाज और सुरीले गाने से माई जी का कीर्तन एक अनोखी ऊँचाई को छू जाता है। माई जी का कीर्तन है सोने का गहना, और कुसुम का स्वर है, जैसे उस में जडा हुआ झगमगाता हीरा। कुसुम का गाना अचानक ही माई के सामने आया था। जब से वह घर आई थी, मुँह बंद किए ही रहती थी। जरूरी होने पर सिफर् हाँ या ना में जबाव देती। देखनेवालों को लगता, गूँगी होगी। माई के घर आने के बाद, वह घर के कामकाज में माई का हाथ बँटाने लगी। उसे तो बचपन से ही काम करने की आदत थी। धीरे-धीरे उसकी जिम्मेदारियाँ बढने लगीं। माई गृहस्थी के काम-काज में उस पर अधिकतर निर्भर रहने लगी। उसके घर आने से माई को पढने के लिए, नये-नये आख्यान रचने के लिए, ज्यादा फुरसत मिलने लगी। बाहर से आते ही उन्हें चाय या शरबत अनायास मिलने लगा। खाना पकाना, बाजार में जाकर आवश्यक चीजें खरीदना, घर साफ-सुथरा रखना, यह काम कुसुम बडी कुशलता से करती, पर कोई पराया सामने आए, तो न जाने उसे क्या हो जाता, वह गडबडा जाती। उसके चेहरे पर उभरा पागलपन का भाव देखकर माई को चिढ आने लगती और वह चिल्लाती, ��ऐ, पागल, ध्यान कहाँ है तेरा?�� तो कुसुम हडबडी में और कोई न कोई गलती कर बैठती। माई को कभी-कभी अपने आप पर ही गुस्सा आ जाता। इसमें उस बेचारी की क्या गलती है? रूप थोडे ही किसी के हाथ होता है! मैं खुद प्रवचन में कहती फिरती हूँ, �काय भुललासी वरलिया रंगा?� (ऊपरी रंग पर क्यों मोहित होते हो?) यह सब क्या सिर्फ सुनने-सुनाने के लिए ही है? फिर कुसुम के बारे में उनके मन में ममता उभर आती। पर उसे व्यक्त कैसे करे, उनके समझ में नहीं आता। पिछले छः सात सालों से कुसुम के बारे में करुणा और घृणा दोनों के बीच उनका मन आंदोलित होता रहता था। अट्ठारह साल की हो गई थी कुसुम। चुप्पी साधे हुए घर का सारा काम निपटाती थी, इस तरह, कि देखने वालों को लगता लडकी गूँगी है। उस दिन पालघर से कीर्तन समाप्त करने के बाद माई घर लौटी, तो घर से अत्यंत सुरीली आवाज में उन्हें गाना सुनाई दिया। धाव पाव सावळे विठाई का मनी धरली अढी (हे साँवले भगवान, विठूमैया, तुम क्यों रुष्ट हो? अब मुझ पर कृपा करो।) माई के मन में आया, ��इतनी सुरीली आवाज में कौन गा रहा है। कीर्तन का आमंत्रण देनेवालों में से तो कोई नहीं है? माई अंदर गई। घर में दूसरा कोई नहीं था। कुसुम अकेली ही थी। अपना काम करते-करते गा रही थी। एकदम मुक्त... आवाज में इतनी आर्तता, इतना तादात्म्य मानो, सचमुच उस साँवले विट्ठल के साथ बात कर रही हो। माई के आने की जरा भी सुध नहीं लगी उसे। वह गा रही थी और माई सुन रही थी। अचानक उसका ध्यान माई की ओर गया और वह घबरा गई। गाना एकदम से रुका। ताजा पानी भरने के लिए हाथ में पकडा फूलदान जमीन पर गिरा और टूट गया। उसके बदन पर पागलपन की छटा छा गई। डरते-डरते वह काँच के टुकडे समेटने लगी। ��कुसुम फूलदान टूट गया, तो ऐसी कौन सी बडी आफत आ गई? कोई बात नहीं। इसमें इतनी डरने वाली क्या बात है?�� माई ने कहा। आज पहली बार माई ने उसे पागल, न कहकर उसके नाम से संबोधित किया था। जिस मुँह से अंगार बरसने की अपेक्षा थी, उसमें से शीतल बौछार करने वाले ये शब्द कैसे? कुसुम आश्चर्य से माई की ओर देखने लगी, तो उसका बदन और भी बावला सा दिखने लगा। यह क्षण माई के लिए दिव्य अनुभूति का क्षण था। उन्हें लगा, ईश्वर ने कुसुम से रूप देते समय कंजूसी जरूर की है, किन्तु यह कभी, उस को दिव्य सुरों का वरदान देकर पूरी की है। अपना सारा निर्माण कौशल्य भगवान् ने उसका गला बनाते समय, उसमें दिव्य सुरों के बीज बोते समय इस्तेमाल किया है। उस दिन उसका गाना सुनकर माई ने मन ही मन निश्चय किया कि वह उसे कीर्तन में गाए जाने वाले अभंग सिखाएगी और कीर्तन में उसका साथ लेगी। उन्होंने यह बात कुसुम को बताई और कहा, ��कल से रियाज शुरू करेंगे।�� कीर्तन में गाए जाने वाले पद, ओवी अभंग, साकी दिण्डी, दोहे सब की तैयारी माई अपने घर में ही करती थी। हार्मोनियम, तबला बजाने वाले साजिंदे रियाज के लिए कभी-कभी माई के घर आते। हमेशा घर में होता हुआ गाने का रियाज सुनते-सुनते कुसुम को सभी गाने कंठस्थ थे। माई जब कुसुम को कीर्तन में गाए जाने वाले गाने सिखाने लगी, तो उन्हें महसूस हुआ, कि कुसुम को ये सब सिखाने की जरूरत ही नहीं है। उसे सारे गाने, उसके तजर्सहित मालूम है। उसमें कमी है, तो बस सिर्फ आत्मविश्वास की। यों तो अच्छी गाती, किन्तु बजाने वाले साथी आए, तो हडबडा जाती। सब कुछ भूल जाती। उसने डरते-सहते एक दिन माई से कहा, ��ये मुझसे नहीं होगा। लोगों के सामने मैं नहीं गा पाऊँगी।�� अब थोडा सख्ती से पेश आना जरूरी था। माई ने धमकाया, ��तुझे ये सब आएगा। आना ही चाहिये, अगर तुझे इस घर में रहना है, तो गाना सीखना होगा। मेरा साथ करना होगा।�� बेचारी क्या करती? उसे माई के सिवा चारा था ही कहाँ? माई ने धमकाया। साम-दाम-दण्ड नीति अपनाई और कुसुम का रियाज शुरू हुआ। अब कुसुम गाने लगी, माई से भी सुंदर, भावपूर्ण, सुरीला गाना। गाते समय वह हमेशा की पगली-बावली कुसुम नहीं रहती थी। कोई अलग ही लगती। गंधर्वलोक से उतरी हुई एखादी गंधर्वकन्या। पिछले तीन सालों से माई के पीछे खडी होकर वह कीर्तन में माई के साथ गाती आ रही थी। माई जी ने भजन करने के लिए कहा, ��राधाकृष्ण- गोपालकृष्ण��-��राधाकृष्ण- गोपालकृष्ण�� पूरा सभामंडप गोपालकृष्ण की जयघोष से भर गया। तबला और हार्मोनियम के साथ तालियाँ और शब्द एकाकार हो गए। भजन की गति बढ गई। आज उत्तररंग में माई जी कुब्जा की कथा सुनाने वाली थी। माई कहने लगी, ��हमने पूर्वरंग में देखा, कि मनुष्य के बाह्य रूप की अपेक्षा उसके अंतरंग की भावना महत्त्वपूर्ण है। ईश्वर को भी भाव की भूख होती है। ईश्वर पर नितान्त श्रद्धा रखने वालों को कुब्जा की कथा ज्ञात होगी ही। चलो! आज हम सब मथुरा चलते हैं। मथुरा में आज भगवान् कृष्ण पधार रहे हैं। आज कुछ खास होने वाला है। सबका मन अस्वस्थ है। दिल में अनामिक कुतुहल है, साथ-साथ कुछ चिंता, बेचैनी भी है। अष्टवक्रा (जिस का तन आट जगह टेढा-मेढा है) कुब्जा मन में विचार कर रही है, ��आज मुझे कृष्णदर्शन होंगे ना? क्या मैं उनके पैरों पर माथा टेक सकूँगी? उन्हें चन्दन लगा सकूँगी कितने दिन हो गए, उस पल को! सारा जग निदि्रत था। मध्यरात्रि का समय था। मैं यमुनास्नान के लिए गई थी। कोई देखकर मेरे रूप का उपहास न करे, ताने न कसे, इसके लिए, मध्य प्रहर में ही स्नान करने का प्रण कितने ही दिनों से लिया था मैंने। उस दिन, नहीं. नहीं. उस मध्याह्नरात में, नदी के उस पार से आनेवाली कृष्ण जी की मुरली की धुन सुनी और मुझे लगा, मेरा जीवन सार्थक हो गया।�� माई जी के रसीले विवेचन ने श्रोताओं के सामने साक्षात् कुब्जा खडी कर दी। उसका मन स्पष्ट हो रहा था। काली स्लेट पर लिखे सफेद अक्षरों की तरह श्रोता कुब्जा का मन पढने लगे थे। हाथ पीछे करके माई जी ने कुसुम को इशारा किया। वह गाने लगी। अजून नाही जागी राधा अजून नाही जागे गोकुळ अशा अवेळी पैलतिरावर आज घुमे का पावा मंजुळ। (अभी राधा सोई हुई है। सारा गोकुल सोया है। ऐसे में उस पार बाँसुरी की यह मधुर धुन क्यों बज रही है।) मुरली की वह धुन अब कुसुम को भी सुनाई देने लगी। उसके कान में वे सुर गूँजने लगे। विश्वच अवघे ओठा लावून। कुब्जा प्याली तो मुरली रव। (जैसे पूरा विश्व अपने होठों से लगाकर कुब्जा ने मुरली की ध्वनि पी ली।) कुब्जा कहाँ? वह कुस्मी थी। या कृष्णयुग की वही कुब्जा, आज के युग की कुस्मी बनी थी और धीरे-धीरे अपने भूतकाल में प्रवेश कर रही थी। माई जी कहने लगी, ��मथुरा के राजमार्ग पर सभी श्रीकृष्ण् की राह देख रहे थे। इतने में कुब्जा लडखडाती हुई आगे बढी। कुछ लोग बोलने लगे...� कुसुम ने साकी गाना प्रारंभ किया, नकोस कुब्जे येऊ पुढती ऽऽऽ करू नको अपशकुना ऽऽऽ येईल येथे क्षणी झडकरी नंदाचा कान्हा ऽऽऽ� (कुब्जा तुम आगे मत बढो। मनहूस न बनो। अपशकुन मत करो। अब यहाँ किसी भी क्षण नंद का कान्हा आएगा।) माई जी ने विवेचन करना प्रारंभ किया..� कुब्जा पूछने लगी, ��क्या मेरे दर्शन से भगवान् श्री कृष्ण को अपशकुन होगा? भक्तन से मिलने पर भगवान् को कभी अपशकुन हुआ है? फिर वे कैसे भगवान्?�� वह मन ही मन कहने लगी, ��कितने साल हो गए, इस क्षण की प्रतीक्षा में ही मैं जिंदा रही हूँ। इसी क्षण के लिए मैंने अपनी जिंदगी की हर साँस ली है...।�� सभामंडप में उपस्थित श्रोता निश्चलता से साँस रोककर माई जी को सुन रहे थे। कुब्जा की भावना चरम सीमा पर पहुँची थी। माई आगे की कथा सुनाने लगी। इतने में ��आया. आया. कृष्णदेव आ गया. गोपालकृष्ण महाराज की जय!�� मथुरा के प्रजाजन ने कृष्णदेव का जयजयकार किया।��.. इसी समय माई जी के आवाज में अपनी आवाज मिलाकर सभामंडप में उपस्थित श्रोताओं ने भी जयजयकार किया। ��..कृष्णदेव आ गए। कुब्जा आगे बढी। सैनिकों ने उसे पीछे खींच लिया। पर आज उसमें न जाने कहाँ से इतनी शक्ति आ गई थी, उन्हें ढकेलकर कुब्जा आगे बढी हाथ में चाँदी की कटोरी, कटोरी में चंदन, दूसरे हाथ में मोगरे की माला... यह सब बनाने के लिए उसे सारी रात कष्ट उठाना पडा था। कृष्ण को यह सब अर्पण करके उस का कष्ट सार्थक होने वाला था।�� माई जी ने कुसुम को इशारा किया। वह गाने लगी। शीतल चन्दन उटी तुझिया भाळी मी रेखिते नवकुसुमांची गंधित माला गळा तुझया घालते भक्तवत्सला भाव मनीचा जाणून तू घेई कुब्जा दासी विनवितसे रे ठाव पदी मज देई (मैं। तुम्हारे माथे पर चन्दन टीका लगा रही हूँ। नवकोमल सुगन्धित पुष्पमाला तुम्हें पहना रही हूँ। हे भक्तवत्सल, मेरे मन का भाव तू जान ले। यह कुब्जा दासी तुम्हें विनती करती है, कि अपने चरणों में मुझे जगह दे।) �कुब्जा को भगवान् को चन्दन लगाना था। उसके गले में माला पहनानी थी, किन्तु वह इतनी लडखडा रही थी, कि उसके हाथ और कृष्ण का माथा, गला इनका मेल नहीं हो रहा था। जब कृष्ण ने अपने पैर के अंगूठे से कुब्जा का पैर दबाया, तो लडखडाने वाली कुब्जा स्थिर हो गई। उसने चन्दन लगाकर कृष्ण को माला पहनाई और अनन्य भाव से कृष्ण की शरण में आई। अपना सिर कृष्ण के पैरों पर रख दिया। उस के बाहु पकडकर कृष्ण ने उसे उठाया और कितना आश्चर्य... स्पर्शमात्रे कुरूप कुस्मी रूपवती झाली अगाध लीला भगवंताची मथुरे ने देखिली देव भावाचा भुकेला.. भावेवीण काही नेणे त्याला� (उसके स्पर्श से कुरूप कुस्मी रूपवती बन गई। भगवान् की अगाध लीला मथुरा के समस्त नागरिकों ने देख ली। भगवान् भक्त के मन का भाव, श्रद्धा देखते हैं। श्रद्धाभाव के सिवा भगवान् को कुछ भी नहीं चाहिये।) कुसुम ने भैरवी गाने का प्रारम्भ किया था। उसके अबोध मन ने कुब्जा की जगह स्वयं को देखा था और भैरवी में कुब्जा न कहते हुए, कुस्मी कहा था। माई के ध्यान में सब गडबडी आ गई, किन्तु श्रोताओं की समझ में कुछ नहीं आया। शायद उन्हें पूर्व कथानुसार कुब्जा ही सुना दिया हो। कुसुम गाती रही.. गाती रही.. गाती ही रही। माई ने कई बार इशारे से उसे रोकने का प्रयास किया, पर कुसुम गाती ही रही। मानो, कुस्मी ने भगवान् के चरणों पर माथा टेका हो। वह उनके चरणों में लीन हो गई हो। भगवान् ने अपने हाथों से उसे उठाया, और क्या? कुसुम रूपवती हो गई! अब भगवान् के गुणगान के सिवा उसकी जिंदगी में कुछ भी बचा नहीं था। कुछ भी.. कुसुम गाती रही.. गाती रही.. गाती ही रही। छः बज चुके थे। कीर्तन समाप्त करने का समय हो गया था। कुसुम का गाना रुक नहीं रहा था आखिर उसे वैसे ही गाते छोडकर माई जी कथा समाप्ति की ओर बढी। �हेचि दान देगा देवा। तुझा विसर न व्हावा। विसर न व्हावा। तुझा विसर न व्हावा।� (हे भगवान्! हमें इतना ही दान दे दे, कि हम तुम्हें कभी भूले नहीं) ऐसा कहते हुए उन्होंने प्रार्थना की और आरती जलाने को कहा। आरती शुरू हो गई, तो कुसुम को होश आ गया। वह गाते गाते रुक गई। गाना रुकने के साथ-साथ, उसके चेहरे की चमक भी लुप्त हो गई। अपनी भूल का उसे अहसास हो गया। वह डर गई। हडबडा गई। और ही बावली लगने लगी। तितली की शायद इल्ली बनने की शुरुआत होने लगी। आरती का थाला घुमाया गया। उसमें आए पैसे, फल, नारियल, किसी ने समेटकर माई जी को दे दिए। देशमुख जी ने माई जी को रहने के लिए जो कमरा दिया था, उसकी ओर माई जाने लगी। उनके पीछे-पीछे डरती-सहमती, पाँव खींचती, खींचती, इल्ली की तरह कुसुम भी जाने लगी। आज पहली बार माई को महसूस हुआ, कि कुसुम इतनी विरूप नहीं है, जितनी लोग समझते हैं। वह कुरूप लगती है, इसका कारण है, आत्मविश्वास का अभाव। गाते समय वह कितनी अलग, कितनी तेजस्वी दिखती है, मानो कोश से निकलकर इल्ली, तितली बन गई है.. रंग विभारे तितली। माई नें ठान ली, अब इस तितली को वे फिर से कीडे-मकोडे में परिवर्तित नहीं होने देगी। आत्मविश्वास का �कृष्णस्पर्श� उसे देगी। अब वह उसे किसी अच्छे उस्ताद के पास गाना सिखाने भेजेगी। कीर्तन सिखाएगी। उसे स्वावलंबी, स्वयंपूर्ण बनाएगी। उनके दिल में कुसुम के प्रति अचानक प्यार का सागर उमड आया। क्या आज माई के विचारों को भी �कृष्णस्पर्श� हुआ था?

Sunday, January 17, 2010

पुणे मेळावा - आयोजकांचे अभिनंदन

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पुणे येथे - मराठी ब्लॉगर्स चा मेळावा जो यशस्वी पार पडला त्याबद्दल सर्व आयोजकांचे अभिनंदन. या मेळाव्यात जे विषय चर्चीले गेले आहेत ते सर्व भविष्यात घडून येऊन, मराठी ब्लॉग हे एक नवीन आधुनीक माध्यम म्हणून यशस्वी व्हावे अशा माझ्या शुभेच्छा

( अधिक वृत्तांत श्री अनिकेत यांच्या अनुदिनीत इथे पाहू शकता )


मी स्वतः लेखिका आहे. साहित्य संमेलना बाबत खालील माहिती श्री. अनिकेत यांच्या वृत्तांतात वाचली .

1) स्नेह-मेळाव्यासाठी काही पुस्तक प्रकाशकांचीही हजेरी. शोध नविन लेखकांचा. लवकरच त्या प्रकाशकांची चांगल्या ब्लॉगर्सशी ह्या मेळाव्याच्या आयोजकांतर्फे ओळख करुन देण्यात येईल.
2) मराठी साहीत्य संमेलनात ब्लॉग्सतर्फे प्रसिध्द केल्या जाणाऱ्या साहीत्याची ही दखल घेतली जावी असे अनेकांना वाटते आणि त्यासाठीचे निवेदन येत्या काही दिवसांत अखिल भारतीय संमेलनाचे नवनिर्वाचीत अध्यक्ष डॉ.द.भि.कुलकर्णी ह्याच्याकडे एका शिष्टमंडळातर्फे सुपुर्त केले जाईल. स्नेहमेळाव्याच्या आयोजकांनी हा ठराव आणि त्यासाठीचे निवेदन तयार करुन ठेवले आहे. कुलकर्णी साहेबांची वेळ मिळतात ते त्यांच्याकडे सुपुर्द केले जाईल.
3) पुण्यात होणाऱ्या अखिल भारतीय मराठी साहीत्य संमेलनात मराठी ब्लॉगर्ससाठी एक स्टॉल स्पॉन्सर्ड झाला आहे. ह्या स्टॉल तर्फे संमेलनात येणाऱ्या वाचकांना ब्लॉग्सबद्दल, त्यावरील साहीत्याबद्दल अधीक माहीती दिली जाईल तसेच काही निवडक ब्लॉग्सचे साहीत्य आणि त्या ब्लॉग्सचे दुवे त्या त्या लेखकांच्या संमंतीने ह्या स्टॉलवर मांडले जातील. याबाबत अधीक माहीती येत्या काही दिवसांत प्रसिध्द केली जाईल

एक लेखिका म्हणून याबात जे निर्णय होतील त्याबद्दल उत्सुकता लागून राहिली आहे.

धन्यवाद
उज्ज्वला केळकर
सांगली

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माझी इतर माहिती इथे पहा.

Monday, November 9, 2009

आपले लक्ष्य

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अरे.....माझ्या हाताला इतक्या वेदना का होताहेत ? आणि इतकं रक्तं.... अरे...अरे...मिस्टर द्रोणनाथन, आपण इतके निर्दयी कसे होऊ शकता ? आपण माझा अंगठा का कापलात ? वेदनेने कळवळत एकलव्य जागा झाला. त्याने आपला उजवा हात चाचपडला. आपला अंगठा सुरक्षित पाहून त्याने सुटकेचा निश्वास सोडला. त्याला वाटलं, आपल्याला पडलेलं हे भीतीदायक स्वप्नं आपल्याला जीवनात होणा-या दुःख वेदनेचा आरसा तर नसेल ? तो मनातल्या मनात म्हणाला, " हे दुःख या वेदना किती काळ माझ्याजवळ रहाणार, कुणास ठाऊक ? " तो उठून आपल्या खोलीला लागून असलेल्या बाल्कनीत गेला. बाहेरचं मोकळं आकाश पाहून त्याने आपले दोन्ही हात पसरले आणि करुणा भाकली. " परमेश्वरा, तू माझी असहाय्यता किती काळपर्यंत अशी नुसतीच बघत बसणार ? नुसताच बघत रहाशील, की कधी खालीही येशील ?...." एवढ्यात त्याने खिडकीतून खाली पाहिलं, तेव्हा त्याला दिसलं, सोसायटीच्या पार्किंगमध्ये सामानाने भरलेला एक टेम्पो येऊन उभा रहिलाय. तो उत्सुकतेने खाली गेला. खाली येताच त्याला दिसलं, की टेम्पोच्या मागे एक रिक्षा उभी आहे. रिक्षातून जवळ जवळ सहा फूट उंचीचा, आकर्षक व्यक्तिमत्वाचा एक माणूस खाली उतरला. त्याने जीन्स आणि पांढ-या रंगाचा कुडता घातला होता. या साध्या वेशातही त्याचं व्यक्तिमत्व तेजस्वी आणि असामान्य असं प्रतीत होत होतं. एकलव्याला वाटलं, टी. व्ही.वरील महाभारताच्या सिरियलमधून कुणा दिव्य पुरुषाचं आगमन झालय, कारण त्याच्या प्रसन्न मुखमुद्रेवर दिव्यत्वाची आभा झळकत होती. त्या अपरिचित माणसाचं दिव्य रूप पहून एकलव्याच्या मनात खुशीची लहर निर्माण झाली. एकलव्याला त्यावेळी माहीत नव्हतं, की ईश्वराने त्याची प्रार्थना किती लवकर ऐकली. एकलव्याच्या मनात त्या नव्या माणसाची ऒळख करून घेण्याची उत्सुकता निर्माण झाली. त्या माणसाच्या जवळ जाऊन एकलव्याने विचारले, " आपल्याला या पूर्वी कधीच पाहिलं नव्हतं. आपण नव्याने या बिल्डिंगमध्ये रहाण्यासाठी आला आहात का ? " आपल्या बिल्डिंगच्या वरच्या मजल्यावरचा एक फ्लॅट रिकामा आहे, हे एकलव्याला माहीत होते. " होय आणि नाहीही ! " तो अपरिचित माणूस गंभीरपणे म्हणाला. त्या माणसाचं असं गोंधळात टाकणारं उत्तर ऐकून एकलव्य विचारात पडला. त्याला अशा उत्तराची अपेक्षा नव्हती. होय पण... आणि नाही पण.... याचा अर्थ काय ? काही वेळ गप्प बसून, काहीशा साशंकतेने तो त्या नव्या व्यक्तिला न्याहाळू लागला. आपल्या प्रश्नाचं खरं खुरं उत्तर मिळवण्याच्या प्रयत्नात पुढे म्हणाला, " ते कसं काय ? " " हा फ्लॅट माझ्या मित्राचा आहे. फ्लॅटबाबत कोर्टात केस चालू आहे. कोर्टाचा निर्णय माझ्या मित्राच्या बाजूने लागला, तर मी इथे राहीन.... नाही तर मी इथून दुसरीकडे कुठे तरी निघून जाईन ! " त्या माणसाने आपल्या पहिल्या उत्तराचं रहस्य उलगडलं. एकलव्याने सगळं नीट समजल्यासारखी होकारार्थी मान हलवली. " अच्छा.... असं आहे तर... आपल्याकडे पुष्कळ सामान दिसतय. आपलं सामान वर नेण्यासाठी मी आपल्याला मदत करू का ? " एकलव्याला माहीत नव्हतं, की त्याचं आणखी एक उत्तर त्याला पुन्हा कोड्यात टकणार आहे. " जरूर ! " त्या माणसाचं हे दुसरं उत्तर. पण तो एवढच बोलून थांबला नाही. तो पुढे म्हणाला, " तुम्ही माझी मदत करू शकता पण.... " " पण काय ? " " जर तुम्ही स्वतःची मदत करू शकत असाल तर....." " म्हणजे याचा अर्थ काय ? " एकलव्याने चमकून विचारले. " स्वतःची मदत करणाराच माणूस खूश, आनंदी राहू शकतो आणि आनंदी, खूश असलेल्या लोकांनीच केलेली मदत मी स्वीकारतो...." त्या अपरिचित माणसाची अट ऐकून एकलव्याला थोडी लाज वटली. मिस्टर द्रोणनाथनचा चेहरा त्याच्यासमोर साकार झाला. द्रोणनाथन त्याच्या बॉसचं नाव. त्यांचे शब्द एकलव्याला आत्ताही ऐकू येत होते....." आपलं ड्रॉईंग मला पसंत पडलय. आपण कुशल आहात, पण आपल्या कौशल्याचा उपयोग आम्ही पुढ्च्या प्रोजेक्टमध्ये करून घेऊ. नाराज होण्याचं कारण नाही. " ऑफीसमधील ही घटना आठवून एकलव्य काही काळगप्प झाला. मग काहीशा खजील स्वरात म्हणाला, " मी यावेळी दुःखी आहे, पण अपल्याला मदत करण्यात मला आनंदच वाटेल. " " मग तर तू माझी मदत करच ! पण त्यापूर्वी माझा एक छोटा विनोद ऐक. " त्या नव्या माणसाने पहिल्या सारख्याच गंभीरपणे म्हंटलं. आता एकलव्याला धीर आला. एकलव्याला त्याच्या बोलण्यातून असं मुळीच जाणवलं नाही, की तो थट्टा करतोय. तो विचार करू लागला, याचा चेहरा- मोहरा तेजस्वी आणि आनंदी दिसतोय, पण काही विचारलं तर विलक्षणच उत्तर देतोय. मग त्याला वाटलं, जिथं इतका वेळपर्यंत त्याला सहन केलं, तिथं आणखी थोडा वेळ....असा विचार करून त्याने त्याचा विनोद ऐकण्यासाठी होकार भरला. " काय ऐकतोयस ना ? " त्या माणसाने आपलं हसू लपवत विचारलं. " अं.....हो ! " " दोघे मित्र आपापसात गप्पा मारत आपल्याच नादात रस्त्यातून चालले होते. पहिल्या मित्राने तक्रार करत दुस-या मित्राला म्हंटलं, " तू हा चष्मा का वापरतोस ? तू हा चष्मा लावतोस, तेव्हा तू मला अगदी घुबडासारखा दिसतोस." पहिल्या मित्राच्या प्रश्नाचं शांतपणे उत्तर देत दुसरा मित्र म्हणाला," जेव्हा मी चष्मा वापरत नाही, तेव्हा तू मला घुबडासारखा दिसतोस. " विनोद ऐकून आणि त्याच्या, तो सांगण्याच्या शैलीने, एकलव्य खो खो हसू लागला. एकलव्याला मनमोकळं हसताना बघून त्या नव्या माणसाने खोडकरपणे म्हंटलं, " आता तू काहीसा माझी मदत करण्याच्या लायकीचा झाला आहेस. " " याचा अर्थ काय ? " नव्या माणसाने एकलव्याच्या प्रश्नाचे उत्तर न देता दुसरा विनोद सांगायला सुरुवात केली. " एका मित्राने आपल्या दुस-या खेडवळ मित्राला विचारलं, " गांधीजयंतीबद्दल तुला काय माहिती आहे ? " तेव्हा तो खेडवळ मित्र म्हणाला, गांधीजी एक महान पुरुष होते, पण जयंती कोण होती, हे नाही माहीत मला ! एकलव्य कोड्यात पडल्यासारखा हसू लागला. त्याला कळेना, की त्याने हसतच रहावं, की तिथून निघून जावं ? तेवढ्यात त्याला त्या माणसाचे शब्द ऐकू आले, " उभा का राहिलाहेस ? चल माझी मदत कर ! " एकलव्याने त्या माणसाचं सामान उचललं आणि बिल्डिंगकडे निघाला. " आता तू माझी मदत करू शकतोस, कारण आता तू खूश आहेस. " " आपण नेहमी असंच करता ? " एकलव्याने सामान्य स्थितीत येत विचारले. " हो ! मी नेहमी खूश असणा-या लोकांकडूनच मदत घेतो. जर ते खूश नसतील, तर प्रथम त्यांना खूश करतो, कारण खूश, आनंदी असणारा माणूसच कुणाचीही योग्य त-हेने मदत करू शकतो. आपल्या दुःखात चूर असणार्‍या माणसाची योग्य त-हेने मदत करण्याची कुवत नसते. " नव्या माणसाचं हे बोलणं एकलव्याच्या बुद्धीपेक्षा ह्रुदयाला स्पर्श करून गेलं. त्याने त्या अपरिचिताला लिफ्ट्द्वारे वरच्या फ्लॅटपर्यंत पोचवले. सामान घेऊन जाताना लिफ्टमध्येही दोघांचं बोलणं सुरूच होतं. " माझं नाव एकलव्य. आपलं ? " " माफ करा ! मी माझं नाव आणि काम दुस-याला सांगायला थोडा वेळ घेतो. " " काही हरकत नाही. मी आपलं आपल्याला समजून घेण्यासाठी विचारलं. " " एकलव्याला जाणून घेण्याचा तरी कधी प्रयत्न करतोस ? " " अं... मला कळलं नाही." एकलव्य गडबडला. असा विलक्षण प्रश्न त्याला अगदी अनपेक्षित होता. " काही नाही... मी अशीच गंमत केली.... चल माझ्या मित्राचा फ्लॅट आला. " लिफ्ट्मधून बाहेर पडत तो म्हणाला. त्याने एकलव्याच्या मदतीने आपलं सामान फ्लॅटच्या दरवाजाशी ठेवलं आणि कुलूप काढलं. एकलव्याला वाटलं, तो माणूस त्याला आत येण्याचं निमंत्रण देईल. पण तो अनोळखी माणूस अनोळखीच राहिला. " एकलव्य, तुला भेटून आनंद झाला ! " एकलव्याला आत न बोलावताच त्याच्याशी हस्तांदोलन करून तो अनोळखी माणूस म्हणाला आणि त्याला जाण्याचा हलकासा इशारा केला. " मलाही आपल्याला भेटून अतिशय आनंद झाला. " एकलव्यानेही हात उंचावून त्याचा निरोप घेतला. या अनोळखी माणसाच्या अनपेक्षित व्यवहाराने एकलव्य आचंबित झाला होता. " याने तर मला बाहेरूनच घालवून दिलं." एकलव्य मनातल्या मनात बडबडला. एकलव्याचा फ्लॅट या अनोळखी माणसाच्या फ्लॅटच्या बरोबर खाली होता. आपल्या फ्लॅटकडे परतताना एकलव्याच्या मनात विचार आला, की या माणसाला अशा कही गोष्टी माहीत आहेत, की ज्यामुळे तो इतका आनंदी आणि तेजस्वी दिसतोय, पण त्याने आपलं नाव का नाही सांगितलं ? दुस-याला मदत करणं, एकलव्याच्या स्वभावातच होतं. त्या अपरिचित माणसाला मदत करून त्याला जो आनंद होत होता, असा आनंद या पूर्वी त्याला कधीच झाला नव्हता. आनंद आणि आश्चर्य यांच्या संमिश्र भावनेने भारावून तो घरी परतला।

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उज्ज्वला केळ्कर यांच्या अगामी अनुवादित पुस्तक ' आपले लक्ष्य ' यातून साभार

Wednesday, November 4, 2009

व्यक्तित्व - सरला दी जीवेत शरदः शतम्

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मधुमती या राजस्थानातून प्रकाशीत होणार्‍या मासिकात सरला अग्रवाल यांच्याबद्दल लिहिलेला हा लेख ( हिंदितून )

नयी सहस्त्रब्दि के आगमन की बडी धूम मची थी। हमारे लिए उसकी झोली में क्या होगा ? थोडी उत्कंठा, थोडी आशंका, उत्सुकता थी। जो भी वह लाएगा, नतमस्तक होकर स्वीकारना ही पडेगा, यह पहले से ही निश्चित था। आखिर वह नयी सहस्त्रब्दि आ ही गयी। अपनी ही धुन में मस्त होकर, अपनी ही रफ्तार से आ गयी। मेरे लिए इस वक्त उसकी झोली में एक अद्भुत चीज थी। वह मेरे लिए एक नई बहन लाई थी। बडी बहन। मेरी आत्मीय। मेरी दीदी। सरलादी। सरला दी और मैं, वास्तव में, आज तक कभी एक दूसरे से मिली नहीं। परन्तु कल्पना के पंखों पर सवार होकर मैं कई बार उनके पास गई हूँ। उन्होंने मुझे गले लगाया है। गोद में बिठाया है। बहुत सारा स्नेह, प्यार दिया है। मैंने अपनी मन की आँखों से उन्हें जी भरके निहारा है। सरलादी से मेरी पहली मुलाकात करवाई ?सुगना? ने। उनकी ?माहौल के हाथों? लघुकथा की नायिका ?सुगना?। दीन व्यथित महिला। घर-घर में झाडू पोंछा करके, बरतन माँज के अपना और अपने बीमार बाप का खर्च चलाने वाली स्त्री। अपनी टूटी-फूटी झोंपडी में अपने काम के पैसे सुरक्षित नहीं रहेंगे, सोचकर वह अपनी मालकिन को अपने सुरक्षित रखने के लिए देती है। दो दिन बाद उसके बाप की हालत और भी खराब होती है। उसे अस्पताल में भरती करना पडता है। डॉक्टर दवाइयाँ लिख देते हैं। रात का समय, पास में फूटी कौडी भी नहीं। सुगना मालकिन के पास रखे पैसे वापस लेने जाती है। मालकिन मैके गई है। उसने सुगना के पैसे अलग से रख दिए हैं। वह उसके पति के हाथ लगते हैं। वह सोचता है, पत्नी ने ये रुपये शायद उसके लिए ही रखे होंगे। अपने लाभ की बात सोचकर पैसे लेकर वह अपने यार दोस्तों के साथ शराब की पार्टी में मस्त हो जाता है। सब लोग नशे में धुत् हैं। ऐसे में अपने पैसे वापस लेने आई सुगना अनायास ही उन अधमों की चपेट में आ जाती है। उसकी इज्जत लूटी जाती है। अपना सब कुछ खोकर सुबह सुगना जब अस्पताल आती है, तब तक, समय पर दवा न मिलने के कारण, बाध की मृत्यु हो चुकी होती है। ऐसी अभागी ?सुगना? को मैं आज तक भूल नहीं सकी। ?सुगना? को पढने के बाद मुझसे रहा न गया। ऐसी व्यक्ति रेखा को सृजित करने वाली सरला अग्रवाल को मैंने खत लिखा। ?सुगना? के कारण मुझे ?सरला दी? मिलीं, किन्तु ?सुगना? मुझे कैसे मिली ? एक दिन अचानक पटना से प्रकारित होने वाली त्रैमासिक पत्रिका ?कथासागर? मेरे हाथ लग गई। उसमें ?सुगना? लघुकथा थी। हम मराठी में जिसे लघुकथा कहते हैं, उससे भी छोटी। एकदम संक्षिप्त। मराठी की लघुकथा, हिन्दी में कहानी होती है। हिन्दी लघुकथा २५० या ३०० शब्दों की होती है, कभी कभी उससे भी कम। मराठी में इतनी छोटी कथा लिखने का प्रचलन नहीं है। लघुकथा की यह विधा हिन्दी में काफी समृद्ध है। साहित्य की इस विधा की नवीनता, मार्मिकता, सटीकता से मैं प्रभावित हो गई, और ऐसी हिन्दी लघुकथाओं का अनुवाद, ?लोकमत?, में ?तरुण भारत? के ?खजाना? परिशिष्ट में सादर भेजने लगी। (उनमें से ?लोकमत में छपी तारिक असलम ?तस्नीम? की कथाओं का अनुवाद ?स्पॉटलाईट? नाम से, एवं तरुण भारत ?खजाना? परिशिष्ट में छपी हुई ?कमल चोपडा? की कथाओं का अनुवाद ?संवेदना? नाम से पुस्तकाकार रूप में ?मेहता प्रकाशन? द्वारा अभी-अभी मार्च ०७ में प्रकाशित हुआ है।) ?सुगना? कथा मुझे अच्छी लगी। उसका अनुवाद करने के लिए मूल लेखिका की अनुमति आवश्यक थी। मैंने एक औपचारिक पत्र सरला अग्रवाल के नाम लिख दिया, जिसमें ?माहौल के हाथों? कथा का मराठी में अनुवाद करने की अनुमति देने की विनती की थी। मेरा पत्र औपचारिक था, किन्तु उनका प्रत्युत्तर आत्मीयता से भरपूर था। उसमें अनुवाद की अनुमति तो थी ही, पर उसके साथ-साथ, थोडी अपनी जानकारी थी और बडे प्यार से मेरे बारे में पूछताछ की थी। अंत में बडे स्नेह से हस्ताक्षर किए थे, ?आप की बहन? लिखकर। आगे खतों का सिलसिला जारी रहा। उम्र का हिसाब-किताब हो गया और वे लिखने लगीं, ?आपकी ही सरलादी?। ?खजाना? में मेरे द्वारा अनूदित कथाओं का धारावाहिक क्रम चल रहा था। अतः मैंने सरलादी से विनती की, कि वे उनकी और कुछ लघुकथाएँ भेजें। उन्होंने आठ दस लघुकथाएँ भेजी ही, साथ-साथ लिखा, कि मैं अधिकतर कहानियाँ लिखती हूँ। सिर्फ लिखा ही नहीं, साथ में, ?चर्चित कहानियाँ?, ?स्मृतियों का सफर?, ?समय के दस्तावेज?, ?अंतर्ध्वनि?, ये चार किताबें भी भेजीं। ?चर्चित कहानियाँ? कहानी संग्रह है। ?स्मृतियों का सफर? नये-पुराने साहित्यकारों की यादों से जुडा है। ?समय के दस्तावेज? में साहित्य और जीवन के बारे में वैचारिक निबन्ध हैं और ?अंतर्ध्वनि? कविता-संग्रह है। सरलादी से प्रत्यक्ष मिलने की बडी उत्कंठा थी। मगर क्या करें ? जब भी योजना बनाती, कुछ न कुछ पारिवारिक समस्या सामने आ जाती। दोनों का सात सौ - आठ सौ किमी. का लम्बा फासला। फिर सोचा, उनके साहित्य के माध्यम से ही उन्हें जान लूँ। किसी भी लेखक की विचारधारा, भावना-कल्पना, पसन्द-नापसन्द की चीजें, आस्था या अनास्था के विषय, उसके साहित्य में प्रतिबिम्बित होते हैं। उनके लेखन की ओर अब मैं इस नई दृष्टि से देखने लगी। उनके साहित्य के आधार पर उनके व्यक्तित्व को समझने का प्रयास करने लगी। सोचने लगी क्या उन्हें देखे बिना उनकी पुस्तकों से मैं उनके व्यक्तित्व को समझने में कामयाब हो सकूँगी ? हाथ में उनके खुले दिल से लिखे हुए पत्र भी थे। उनमें से ?उनके बारे में हर बार, कुछ नया-नया मिल ही जाता था। उनका नया सृजन, नया यश, मान-सम्मान, परिचर्चा में सहभाग और बहुत कुछ .......। सरलादी की किताब, ?समय के दस्तावेज? सन् २००२ में प्रकाशित हुई। इसमें ३५ वैचारिक निबन्ध हैं। पुस्तक रूप में प्रकाशित होने से पहले, वे विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में छापे जा चुके थे। साहित्य, जीवन, संस्कृति, भाषा, समाज, राजकीय शिक्षा, धर्म, नैतिकता, मानवता आदि विषयों पर ये निबन्ध लिखे गए हैं। इन्हें पढने पर लेखिका की प्रखर बुद्धिमत्ता, प्रकाण्ड विद्वता को माना जा सकता है। उन्होंने बहुत कुछ पढा है और उसके संदर्भ कुशलता से अपने लेखन में प्रयुक्त किए हैं। विचारों में तर्कशीलता है। विवेकशीलता है। विद्वतापूर्ण एवं तर्कशुद्ध होते हुए भी, लेखन में कहीं भी रुक्षता एवं नीरसता नहीं है। इसका कारण है, उनका कोमल एवं संवेदनशील मन। इसी कारण, उनके गद्य लेखन में भी तरल काव्यस्पर्श हुआ है। अपना भारत, अपनी प्राचीन परम्परा, संस्कृति, अपने जीवन मूल्य, जैसे सत्यम्....शिवम्....सुन्दरम्....वसुधैव कुटुम्बकम् .....अपनी भाषा (हिन्दी और सभी भाषाओं की जननी संस्कृत) आदि सभी बातों पर उनकी अपार निष्ठा है। साहित्य में ?स्व? के सवाल पर विमर्श करते हुए वे ऊपरी सब चीजों की अपेक्षा साहित्यकार से करते हुए कहती है, ?साहित्य अतीत, वर्तमान और भविष्य का दर्शन है।? वह अपनी परम्पराओं और संस्कृति के मूल सारस्वत स्रोत सी प्रवाहित होती हुई, शक्तिमति जीवन सरिता है। वह वर्तमान के नवप्रभात की नवल किरणों का भी स्वागत करती है। साहित्यकार पुरातनता और नवीनता का मंगल सेतु है। अतः जीवनमूल्यों की रक्षा करते हुए, जिस साहित्य की सृष्टि की जाएगी, वही साहित्य श्रेष्ठता की परिधि में मान्य हो सकेगा। अपने ?स्व? की उदात्तता को भूलकर, परकीय का अंधानुकरण प्रगति नहीं, रसातल की ओर जाना है। ?सरलादी की विचारधारा इस प्रकार सुस्पष्ट है। कविवर स्व. बा. भ. बोरकर जी की एक कविता है। उन्होंने लिखा है, ?दिव्यत्वाची जेथ प्रचीती, तेथे कर माझे जुलती? मतलब, दिव्यत्व के सामने हम नतमस्तक हो जाते हैं। यही विनीत भाव, सरलादी के व्यक्तित्व की एक रेखा है। प्राचीन ऋषि-मुनि, व्यास-वाल्मीकी, संस्कृत कवि, तुलसी-कबीर जैसे संत, मीरा बाई से लेकर आज के युग के सुभद्रा कुमारी चौहान, मैथिलीशरण गुप्त, महादेवी वर्मा, किस-किस का नाम लें ? इन सबके बारे में सरलादी ने बडी श्रद्धा से लिखा है। ?स्मृतियों का सफर? और ?समय के दस्तावेज? में यह ?दस्तावेज? समाया है। जिसके बारे में उन्होंने लिखा है, इतनी आत्मीयता से लिखा है, कि प्रो. प्रेम मोहन लखोटिया उनके बारे में लिखते हैं, ?कोने के एक माटी के दीपक को आपने आकाश गंगा में बिठा दिया। अब मैं खुद को सुन्दर देखने लगा हूँ। आपने मेरे सामने कुछ बनने की चुनौती रख दी है। अब अपनी साधारणताओं को और गहरा आयाम देना ही पडेगा।? अपने आप में मशगूल रहने के, तथा खुद को श्रेष्ठ समझकर प्रदर्शित करने के इस युग में, दूसरों के बारे में इतनी आस्था, इतना अपनापन रखना, अपने लेखन द्वारा इसे प्रदर्शित करना, कभी-कभार ही दिखता है। सरलादी यह कहती हैं। दूसरों को बडा कहने के लिए मन विशाल होना चाहिये। सरलादी के पास ऐसा विशाल मन है। वे दूसरों के साथ विलक्षण सहजता से घुलमिल जाती हैं। जब हमारा साक्षात्कार कभी एक दूसरे से नहीं हुआ, पर उन्होंने हम दोनों के बीच का अंतर बडी सहजता से कम किया; तब जिनके साथ उन्होंने प्रत्यक्ष वार्तालाप किए, जिनके लेखन से वे प्रभावित हुईं, जिन्होंने साँसों को इत्र की तरह सुगन्धित करने वाले अनुभव दिए, उनके बारे में वे तन्मयता से, आत्मीयता से लिखेंगी, इसमें कोई आश्चर्य नहीं। कन्हैयालाल मिश्र-प्रभाकर, डॉ. हरिवंशराय बच्चन, महादेवी वर्मा, विष्णु प्रभाकर, बशीर अहमद ..... किस किस का नाम लें ? ?स्मृतियों का सफर? का हर लेख उन्होंने इतनी तन्मयता से लिखा है कि पाठक को लगता है, वह जैसे सरलादी की अँगली पकडकर उनके साथ मयूख जी, महादेवी जी, वधान जी .......... सबको देख रहा है, सुन रहा है, उनके साथ बोल रहा है। सरला दी दिल की इतनी साफ हैं, कि अंतर रखना, रुखेपन से पेश आना, उन्हें आ ही नहीं सकता। उनका सारा व्यवहार, निःसंकोच, खुले दिल से किया हुआ होता है। मुझे लगता है, इसी कारण, उनकी लघुकथाओं की अपेक्षा, दीर्घकथाएँ (कहानियाँ) अधिक मार्मिक, भावोत्कट, रसोत्कट बनी हैं। लघुकथा विधा की माँग सटीकता की, संक्षिप्तता की। सरलादी तो खुले दिल की ठहरीं। वे जैसा बोलेंगी, वैसा ही लिखेंगी। दिल खोलकर बोलेंगी। विस्तार से बोलेंगी। इसलिए कहानी विधा पर उनका प्रभुत्व, लघुकथा से अधिक होना, स्वाभाविक है। वातावरण निर्मिती, स्वभाव परितोष, प्रत्यक्षदर्शी वर्णन ये सारी विशेषताएँ उनकी कहानियों में स्पष्ट रूप से पाया जाता है। लघुकथा में इसके लिए कोई गुंजाइश नहीं होती। अर्थात् यह मेरी प्रतिक्रिया है। उनकी लघुकथाएँ भी उत्कृष्ट होने की बात, कई पाठकों ने की हैं। उनका ?दिन दहाडे? लघुकथा संग्रह पुरस्कृत भी हुआ है। सरला दी की पच्चीस हास्य-व्यंग्य रचनाएँ ?टाँय-टाँय फिस्स? में संकलित हैं। इस संदर्भ में डॉ. दयाकृष्ण विजयवर्गीय की तरह मुझे भी लगता है, कि विषय हास्यप्रधान होते हुए भी ये रचनाएँ, अपेक्षानुसार हास्यकारक नहीं हुई हैं। मैंने इसका कारण ढूँढने का प्रयास किया। विचार करने पर मुझे लगा कि किसी की त्रुटियाँ दिखाना, व्यंग्य पर उँगली रखना, उनके बस की बात नहीं है। अर्थात् उनके ये लेख उतने हास्यप्रधान नहीं हैं, तो क्या हुआ ? पाठक को उन लेखों से नई प्रेरणा तो मिलती है। मार्गदर्शक जीवनानुभव तो मिलते हैं, यह क्या कम है ? व्यावहारिक जगत् में जीने की नई दृष्टि निश्चित रूप से मिलती है। डॉ. दयाकृष्ण विजयवर्गीय के कथनानुसार इन रचनाओं को ललित, भावपूर्ण, वैचारिक निबन्धों में गिना जा सकता है। ?व्यवहार आपका सुझाव हमारे? यह व्यवहार विज्ञान की पुस्तक है। पति-पत्नी के बीच आने वाली, दाम्पत्य जीवन में दरार लाने वाली समस्याएँ, सरलादी ने बडी बखूबी समझ ली हैं। व्यक्ति कुटुम्ब, समाज इनमें पड रही दरारें मिटाकर जीवन आनन्दित करने के स्तुत्य उपाय उन्होंने यहाँ सुझाये हैं। यह पूरा लेखन उन्होंने बडी ही शालीनता से, सुसंस्कृत भाषा में, जीवन के आश्चर्यों को, रहस्यों को स्पर्श करते हुए किया है। उनका यह लेखन पढने पर लगता है, कि मार्गदर्शक की यशस्वी भूमिका निभाना, उनके व्यक्तित्व का एक प्रकाशमान पहलू है। इसीलिए इस पुस्तक का अब दूसरा संस्करण छप रहा है। ?अंतर्ध्वनि? सरला दी का कविता संग्रह है। इसका शीर्षक जितना सार्थक है, अर्पण पत्रिका भी उतनी ही वैशिष्ट्यपूर्ण है। ?विश्वशांति? के प्रसार में योगदान देने वाली सभी कवियों को उन्होंने यह संग्रह अर्पण किया है। अपने मन की आस को प्रकट करते हुए, ?मेरी व्यथा? कविता में उन्होंने लिखा है - मन चाहता है बाँधना-विश्व को बंधुत्व में, चाहता है तोडना सीमा धरा की, धर्म की, जाति रंग भेद की सरलादी की विचारधारा इसमें व्यक्त होती है। स्वतंत्रता के बाद हम ऐसा कुछ प्राप्त न कर सके, इसके लिए वे दुःखी भी हैं। स्वतंत्रता के बाद पचास वर्षों की कालावधि में हमने क्या किया ? वह कहती हैं - क्या किया हमने इस अर्से में गिना रहे अनगिनत उपलब्धियाँ ऐसा हो रहा है, इस बात का उन्हें खेद है, पर वे, निराशावादी, वैफल्यग्रस्त या सिनिक नहीं हैं। ?अंतर्ध्वनि? की प्रस्तावना में वे कहती हैं, ?आज की मूल्यहीनता, शक्ति की निरंकुशता, अपसंस्कृति के आक्रमण एवं सामाजिक विसंगतियों ने मुझे विशेष रूप से उद्धेलित किया है, फिर भी आशा की एक किरण, घटाघोप अंधकार म भी मुझे सदैव दिखती रही है। वे लिखती हैं - उमड घुमड जब बरसेंगे मेघ हरियाली छा जाएगी डाल-डाल पात-पात फिर से लहराएँगी या ?तुम बसंत हो सरसों? में वे लिखती हैं - क्या कर लेगी पतझड, फिर से महकेगा उपवन सृष्टि का क्रम यही है, महक उठेगा तन-मन इस तरह का आशावाद उनकी अनेक कविताओं में व्यक्त हुआ है। ?अंतर्ध्वनि? की प्रस्तावना में वे कहती हैं, ?मुझे संपूर्ण विश्व एक लगता है, संपूर्ण मानव जाति मेरे लिए महनीय है, इसमें भेदभाव की कहीं कोई गुंजाइश नहीं ....... अपने देश से मुझे अनन्य प्रेम है। ?उनके अंतरंग से यह ध्वनि निकली है उनकी।? ?अंतर्ध्वनि? .... बाह्य जगत् का अनुभव संवेदनशील मनोवृत्ति से ग्रहण करते हुए उनके अर्न्तमन द्वारा दिया हुआ प्रतिसाद। दुनिया में अन्याय है, शोषण है, दुर्बलों को दबोचने की प्रवृत्ति है, पर वे कहती है, कभी ना कभी, इसका अंत होगा। सूर्य को राहू ने ग्रसा है, पर कभी तो सूर्य बाहर निकलेगा अपनी प्रखर किरणों से तम को हरेगा। ईश्वर पर सरलादी की अपार श्रद्धा है। वे लिखती हैं, ?मन में सदैव विश्वास जमा रहता है, कि वह जो कुछ भी करता है, हमारी भलाई के लिए ही करता है। समस्त विश्व उसके द्वारा ही संचालित और व्यवस्थित है। वह जो कुछ है, उन्हें जो भी मिला है, वह उसी की कृपा है। उन्होंने आगे चलकर लिखा है, ?जब कभी मुझे बाह्य विरोधों का सामना करना पडा, तब तब मैं, उसके द्वारा गहन आंतरिक संतोष से पुरस्कृत भी हुई हूँ। मुझे लगता है, बाह्य कष्ट और कठिनाइयाँ, हमारी अन्तर्निहित संकल्प और शक्ति को और भी दृढ कर देती हैं, जो हमें और अच्छा करने तथा आगे बढने के लिए प्रेरित करती हैं। ?सरलादी का यह दृष्टिकोण, खुली आँख से रखी श्रद्धा ही है। वे सश्रद्ध हैं जरूर, किन्तु अंधःश्रद्ध नहीं। उनकी श्रद्धा उन्हें प्रयत्नवाद की ओर ले जाती है। उनमें दृढता, सहनशीलता निर्माण करती है। सरला दी की कलम ने विभिन्न विधाओं में लेखन किया है। पर लगता है, उन्हें खास तौर पर पसन्द है कथाविश्व! ?मुझे बेला से प्यार है?, ?भोर की किरण?, ?मुट्ठी भर उजास?, ?सुबह होगी जरूर?, ?धूप उदास है?, ?मंजल की ओर?, ?यह तो आगाज है?, ?चर्चित कहानियाँ? और अभी-अभी प्रकाशित, ?माँ के लिए? ये कथा संग्रह उनके नाम पर हैं। दुनिया की वास्तविकता का सजगता से निरीक्षण, उसका संवेदनशीलता से किया हुआ चित्रण, ये सरलादी के लेखन की विशेषताएँ हैं, फिर भी उनका लेखन सिर्फ वास्तववादी नहीं है। वे अपनी व्यक्ति रेखाओं के सहारे पाठकों को आदर्शवाद की ओर ले चलती हैं। उन्हें सत्य, शिव, सुन्दरता की आस है। भारतीय संस्कृति पर उन्हें गर्व है। अपनी संस्कृति में, व्यक्ति एवं जीवन को उन्नत करने वाले मूल्यों को कायम रखने की उन्हें चाह है। आज का समाज भोगवादी होता जा रहा है। पाश्चात्यों का अंधानुकरण करके अपने शाश्वत मूल्यों का विध्वंस करता जा रहा है। इससे वे बेचैन होती हैं। ?वटवृक्ष? जैसी उनकी चर्चित कथा या अन्य कई कहानियों में यही आशय दिखाई देता है। सरला दी की कहानियों में सामान्यतः मध्यमवर्ग का चित्रण नजर आता है। फिर भी श्रमिक, दीन, शोषित वर्ग की जीवन शैली पर विशेषतः उस वर्ग की महिलाओं पर आधारित उत्तमोत्तम कथाएँ भी उन्होंने बडी मात्रा में लिखी हैं। ये महिलाएँ अपनी गृहस्थी, परिवार, बच्चे और उनके उज्ज्वल भविष्य के लिए संघर्ष करती हैं। श्रम करती हैं। फिर भी उन पर अन्याय होता है। उनका शोषण होता है। बाहर वालों के साथ कभी कभी घर के लोग भी उनमें शामिल हैं। पर वे निडर होकर परिस्थिति से, अन्याय करने वालों के साथ मुकाबला कर रही हैं। ?स्वावलम्बन?, ?बाँझ?, ?तिवरा जल गईल?, ?एक और पद्मिनी या द्रौपदी? जैसी कथाएँ इस दृष्टि से पठनीय हैं। वे घर-परिवार, बच्चों के लिए बहुत कष्ट उठाती हैं। फिर भी सामान्य सुख शांति भी उनके भाग्य में नहीं है। ?तिवरा जल गईल? की नायिका अंधश्रद्धा की शिकार है। ?बाँझ? कहानी की नायिका लाजो, अपना परिवार पालने के लिए, बच्चों को सास के पास छोडकर, दूसरे गाँव में काम कर रही है। सास की बेपरवाही से बच्चे बीमार होकर मर जाते हैं। उसने बच्चे बंद होने का ऑपरेशन करवाया है, इसलिए सास उसे ?बाँझ? कहकर बार-बार ताने मारती हैं। लाजो डॉक्टरनी से अपना ऑपरेशन खुलवा लेती है। बाद में उसे पता लगता है, उसके मरद ने भी पैसे के लालच में आकर नसबन्दी का ऑपरेशन करवाया है, एक बार नहीं, दो बार। अब उपाय बचा है, सिर्फ टेस्ट ट्यूब बेबी का। इस उपाय को अपनाने के लिए वह अपने पति के सामने हाथ जोडती है। गिडगिडाती है। लेकिन पति तो आखिर पति ही ठहरा। उसकी इज्जत को, पौरुषत्व के अभिमान को ठेस पहुँचेगी। वह भला क्यों मानता ? वह आगबबूला होकर चिल्लाता है, ?साली हरामजादी ! तू दूसरे का बच्चा पेट में पालेगी ? मैं तुझे जान से मार डालूँगा। तुझे घर से निकाल दूँगा।? असल में घर भी तो लाजो का ही है। पति के चिल्लाने पर वह भी बरस पडती है, ?तुम्हें जरा भी शर्म नहीं आती ? जो भी मन में आए, उल्टा-सीधा बोले जा रहे हो। तुम्हारी माँ मुझे ?बाँझ? कहकर ताने मारती थी, तब तुमने कभी कहा, कि तुम भी मेरी तरह बाँझ हो ? अब तुम दूसरी बीवी ला रहे हो ? क्यों ? उसे बाँझ ठहराने ? दूसरों की नजरों में तुम पूर्ण पुरुष रहोगे। मर्द बनोगे। अपनी खामियों को ढंकने के लिए दूसरों की आँख में धूल झोंककर तुम घर में रखैल रख सकते हो, तो क्या मैं तुम्हारी शादीशुदा औरत, तुम्हारा वंश चलाने के लिए डॉक्टर की मदद से, अपनी कोख से बच्चे को जनम नहीं दे सकती ?? ऐसी है लाजो। निडर। विवेकी। परिस्थिति का मुकाबला करने का सामर्थ्य है उसमें। दुर्दम्य स्वाभिमान है। तमाशबीनों को भी मानना पडा, उसके कहने में सच्चाई है, तथ्य है। ऐसी लाजो..... नैसर्गिक वात्सल्य भावनानुसार बच्चे के लिए तडपती, छटपटाती लाजो, पाठकों को भी आकुल कर देती है। ?एक और पद्मिनी या द्रौपदी? की नायिका ?मणकी? भी सरलादी की श्रेष्ठ निर्मिती है। मणकी की शादी उनकी परम्परानुसार पालने में ही हुई थी। सयानी होने पर वह ससुराल आ जाती है। पति बीमार रहता है, पर उससे बेहद प्यार करता है। उसे एक लडकी हुई है। घर में सास, जेठ, जेठानी, देवर, बहुत से सदस्य हैं। मणकी घर का सारा काम निबटाकर, पति की सेवा करती है। फुर्सत में सिलाई-कढाई का काम सीखती है। सिलाई का काम करके पैसे भी कमाती है। कुछ समय बाद उसके पति की मौत होती है। उसके जेठ लालची दृष्टि से उसे देखते हैं, वे उसकी शादी अपने छोटे भाई से करने की योजना बनाते हैं, ताकि इतनी काम करने वाली, साथ-साथ पैसे भी कमाने वाली मणकी घर में ही रहे और उनका भी काम चले। मणकी के देवर की उम्र सिर्फ दस-बारह साल की है। उसने उसे बेटे की तरह पाला है, इसलिए वह इस योजना को नकारते हुए मैके चली जाती है। मैके में भी वह अपने पिता पर बोझ बनकर नहीं रहती। वहाँ मणकी, भैंस चराना, गोबर थापना, दूध निकालना जैसे काम करती है। बच्ची के भविष्य के लिए वह सिलाई- कढाई करके पैसे जोडती है। मणकी का जेठ गाँव वालों की मदद से मणकी का अपहरण करते हैं, किन्तु मणकी डरती नहीं। वह दुर्गा का रूप धारण करती है। कोने में पडी कुल्हाडी को उठाती है। आगे बढने पर मौत के घाट उतारने की भाषा बोलती है। आखिर सास पुलिस को बुलाकर मणकी को, अपने बेटों के शिकंजे से छुडवाती है। मणकी, कृतज्ञता से कहती है, उस समय भगवान ने सास के रूप में उसकी सहायता की। नहीं तो सचमुच उसे पद्मिनी होना पडता, या फिर द्रौपदी। कहानी का शीर्षक भी अर्थवाही एवं मार्मिक है। सरला दी की सृजित की हुई नायिका ऐसी धैर्यशाली हैं। दृढ निश्चयी हैं। मेहनती तो हैं ही ! परम्परा तथा आधुनिकता का मनोहारी समन्वय उनमें है। ऐसा लगता है, अपने व्यक्तित्व के एक-एक अंश से उन्होंने ये नायिकाएँ सृजित की होंगी। सरला दी के लेखन का झपट्टा शायद पढने वालों को हैरान करेगा। कितनी तेजी से लिखती हैं वे। स्कूल-कॉलेज में वे लेखन करती थीं। १९५४ में उनका विवाह संयुक्त परिवार में हुआ। पारिवारिक जम्मेदारियाँ निभाते-निभाते उनका साहित्य से जुडाव सिर्फ पढने तक ही सीमित रहा। १९७२ के पश्चात् उन्होंने फिर से कलम हाथ में लिया .... अर्थात् साहित्य सृजन के लिए। उनकी कहानियाँ, कविताएँ, लेख प्रतिष्ठित शीर्ष पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगे। १९९२ में उनका प्रथम कहानी संग्रह ?मुझे बेला से प्यार है?, प्रकाशित हुआ। उसके बाद, आज तक उनके दस कहानी संग्रह, तीन उपन्यास, एक आत्मकथन, एक वैचारिक लेख संग्रह, एक संस्मरण, प्रकाशित हुए हैं। वे लोकप्रिय हो गईं। एक सर्जनशील लेखिका और रसिक पाठक के रूप में हिन्दी साहित्य जगत् में उनकी पहचान बन गई। सिर्फ इतना ही नहीं, साहित्य के विभिन्न सम्मान उन्हें प्राप्त हुए। कला भारती संस्थान-कोटा, श्री मौजीबाबा लोक कल्याण ट्रस्ट, अखिल भारतीय साहित्य परिषद्-चित्तौड संस्थाओं द्वारा उन्हें सम्मानित किया गया है। ?साहित्य कौस्तुभ?, ?कथा कौस्तुभ? आदि उपाधियों से भी उन्हें अलंकृत किया गया है। उनकी अनेक कहानियों को पुरस्कार प्राप्त हुआ है। ?एक कतरा धूप? इस उपन्यास के लिए विक्रमशिला विद्यापीठ- गाँधीनगर से उन्हें ?विद्या वाचस्पति? (पीएच.डी.) उपाधि भी प्राप्त हुई है। सरलादी का व्यक्तित्व बहुआयामी है। उमर के साथ गले पडे बी.पी. और स्लिप डिस्क जैसे साथियों का लाड-दुलार या उनकी मुँहजोरी बर्दाश्त करते हुए भी, सरलादी इतना कुछ, कब कर पाती हैं, मैं समझ नहीं पा रही हूँ। लेखन-पठन, साहित्य समारोहों में सहभाग, संगोष्ठी, परिसंवाद, भाषण, छोटे-बडे शोध निबन्ध कितना कुछ करती हैं वे ! इतना सब करते हुए, पता नहीं, वास्तुशास्त्र के बारे में पढने-लिखने को, वे समय कहाँ से जुटा पाती हैं ? उनसे मुलाकात होने के बाद, पहला यही सवाल मैं उनसे पूछने वाली हूँ ! वे केवल इस विषय में पढती, या स्फुट लेखन करती हो, ऐसा नहीं है। इस विषय पर उनकी, ?वास्तु दर्शन?, ?भारतीय वास्तु विज्ञान?, ?वास्तु प्रभाव?, ?वास्तु प्रयोग?, ये चार पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। इन पुस्तकों के बारे में, इस विषय के विशेषज्ञों ने गौरवमयी समीक्षा भी की है। ?राजस्थान पत्रिका? ने उनके ?वास्तु दर्शन? किताब के बारे में लिखा है, ?हिन्दी में यह प्रथम पुस्तक है, जिसमें विदिशा भूखण्डों पर निर्माण के लिए विशद् सूक्ष्म जानकारी दी गई है तथा पुस्तक को वैज्ञानिक आधार प्रदान किया है। वास्तुशास्त्र का अध्ययन, उस पर लेखन, इस संदर्भ में अगर किसी को समस्या हो, तो उन्हें मार्गदर्शन, उनके साथ सलाह-मशवरा ..... कितना कुछ करती हैं वे। साहित्य क्षेत्र की तरह, वास्तुक्षेत्र में भी उनका सम्मान हुआ है। ?वास्तु मार्तंड?, ?वास्तु रत्न?, ?वास्तु महर्षि, ?वास्तु वाचस्पति? आदि उपाधियों द्वारा उन्हें इस क्षेत्र में गौरवान्वित किया गया है। इतना सब कुछ कहने पर, शायद आपने सोचा होगा, अब सरलादी की पहचान खत्म हुई होगी। नहीं जी ! अब भी बहुत कुछ कहना बाकी है। उन्हें अपने साहित्य सृजन की जितनी आकांक्षा थी, उतनी ही सामाजिक उत्तरदायित्व की चाह थी। कोटा में ?लायनेस क्लब? की स्थापना के साथ सरलादी सामाजिक कार्यों के परिक्षेत्र में आ गईं। इस क्लब की स्थापना में भी उनका योगदान रहा है। कोटा और मेरठ के लायनेस क्लब के जरिये उन्होंने जरूरतमंदों की काफी मदद की है। लायनेस क्लब तथा कोटा के ?वनिता विकास? के माध्यम से उन्होंने पर्दे में घुट रही महिलाओं को, उजाले में लाने का काम किया है। केवल मनोरंजन की परिधि से उन्हें बाहर निकालकर विविध विषयों पर बोलने के लिए, उनका आत्मविश्वास बढाने के लिए उन्हें प्रवृत्त किया है। उनके लिए विभिन्न स्पर्धाओं का, उपक्रमों का आयोजन किया है। वे कोटा के विभिन्न सामाजिक शैक्षणिक संस्थाओं से भी जुडी हुई हैं। लायनेस क्लब कोटा तथा मेरठ की ओर से, जो स्मरणिकाएँ प्रकाशित हुई, उनमें से बहुत सारी उनके द्वारा संपादित की हुई हैं। उनमें से तीन स्मारिकाएँ पुरस्कृत भी हो चुकी हैं। सरला दी की बेटी डॉ. गीता बंसल और दामाद डॉ. अविनाश बंसल ?शिशु-स्वास्थ्य? नाम की त्रैमासिक पत्रिका प्रकाशित करते हैं। शिशु-स्वास्थ्य अच्छा रहे, इसलिए उनकी छोटी-मोटी बीमारियाँ, उनके लक्षण, उन पर किए जाने वाले उपचार, चिकित्सा आदि बातों की जानकारी इस पत्रिका में दी जाती है। बच्चों के माता-पिता को यह बातें समझ में आईं, तो बच्चों का संगोपन अधिक समझदारी से होगा, यह सोचकर बंसल दम्पत्ती, निःशुल्क वितरण के लिए यह पत्रिका निकालते हैं। इस पत्रिका के संपादन के लिए सरलादी ने अपनी अवैतनिक सेवाएँ अर्पित की हैं। पिछले सोलह वर्षों से निरन्तर वह इस पत्रिका का संपादन कर रही हैं। सरलादी की लेखन के प्रति निष्ठा, अथक परिश्रमों से की गई तैयारी, युवाओं से बढकर है। ?डॉ. सुभाष आर्य?, उनके दामाद डॉ. अविनाश बंसल के स्नेही, ?शिशु स्वास्थ्य? पर अपनी अंग्रेजी में लिखी हुई किताब का हिन्दी में रूपान्तरण कराना चाहते थे। सरलादी ने बडी खुशी से यह जम्मेदारी निभाई। पौ फटने से पहले वे इस कार्य में लग जातीं और रोज तीन घंटे तक यह काम करती थीं। दो महीनों में उन्होंने ३०० पृष्ठों की यह किताब पूर्णतः रूपान्तरित की। यह किताब ?बच्चे और उनकी देखभाल? नाम से प्रकाशित हो गई। अपनी लेखन निष्ठा के बारे में वे लिखती हैं, ?१९७० के बाद जब मैंने फिर से लिखना शुरू किया, तब लेखन का यह सिरा मैंने छूटने नहीं दिया। अनेक तनाव, संघर्षमय परिस्थिति, बीमारी इन सबके बावजूद बिस्तर पर पडे हुए भी मैंने लेखन किया और वह प्रकाशित भी हुआ।? सरला दी की शादी १९५४ में हुई थी। ससुराल जाते वक्त, वे अपने सितार और तबला ले गई थीं। उसी तरह की बनाई हुई चौबीस पेंटिंग्ज भी ले गई थीं। ये सभी चित्र उन्होंने अपने कमरे में लगवा दिए। घर वाले उनके कमरे को ?आर्ट गैलेरी? कहने लगे। उनकी सिलाई-बुनाई की भी खूब तारीफ हुई। सितार और तबले को एक कोने में जगह मिली। बेचारा..... सरलादी से जब मिलूँगी, तब पूछूँगी, ?दीदी.....दीदी..... कलम की तरह कभी सितार पर भी आपका हाथ फेरा जाता है क्या ? कभी-कभार तूलिका के रंगों से, अभी भी रंगा जाता है क्या ? अब भी ये सब करने को मन चाहता है क्या ? मन ने चाहा, तो भी इस के लिए आप समय जुटा पा सकती हैं क्या ? कैसे ? साहित्य सृजन की व्यस्तता में, अन्य कला साधना की ओर ध्यान देने के लिए उनके पास समय हो या न हो, पर उनके आस्वाद के लिए वे समय जरूर निकालती होंगी। विभिन्न कलाओें से, साहित्य सृजन से, स्वाध्याय से उन्होंने अपना जीवन आनन्दमयी बनाया। जन सम्फ से, अनुभव सम्पन्नता से, हर अनुभव को खुली आँखों से देखते हुए, अपना जीवन सम्पन्न बनाया। प्रयत्नपूर्वक ऐसा समृद्ध जीवन जीने वाली मेरी सरलादी सचमुच महान् हैं। उनके लिए ?जीवेत शरदः शतम्? यही प्रार्थना करती हूँ। साथ-साथ यह भी प्रार्थना करती हूँ कि ?शत शरद? उन्हें हमेशा सुखी, समृद्ध एवं कार्य प्रवण रखें। वे हमेशा तृप्त रहें। आनन्दमय जीवन जीयें।

Monday, August 10, 2009

नॉट पेड शुभकामना आणि लोकशाही

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नॉट पेड शुभकामना आणि लोकशाही मूळ लेखक : हरिशंकर परसाई Harishankar Parsai अनुवाद : उज्ज्वला केळकर Ujjwala Kelkar नवीन वर्ष माझ्यासाठी शुभेच्छा असलेल्या भेटकार्डांचा नॉट पेड लिफाफा घेऊन अवतरलं. राजकारण्यांसाठी ते मतपेट्या घेऊन आलं होतं. दोन्हीही नॉट पेडच! मला शुभेच्छांचा स्वीकार करण्यासाठी दहा रुपये खर्च करावे लागले. राजकारण्यांना खूपच "नॉट पेड' चार्ज चुकवावा लागेल.माझ्या आसपास "लोकशाही वाचवा...प्रजातंत्र वाचवा...घटना वाचवा...' अशा घोषणा दिल्या जाताहेत. लोकशाही वाचवण्यासाठी इतके लोक उभे राहिले आहेत, की त्यामुळेच लोकशाही वाचणं मुश्कील वाटू लागलंय. लोकशाही वाचण्यापूर्वी पहिला प्रश्न मनात येतो, "कुणासाठी बरं वाचवायची ही लोकशाही?' लोकशाही वाचली आणि नुसतीच पडून राहिली, तर ती काय कामाची? परसातली भाजी मोकाट गुरा-ढोरांपासून वाचवायची ती कशासाठी? उभ्या उभ्या जळून जाण्यासाठी? नाही नाही, मुळीच नाही! भाजी राखणारा भाजी शिजवून खातो हे खरं! पण आता खाणारे इतके जास्त झालेत, की लोकशाहीच्या वाटणीसाठीच यापुढे भांडणं होत राहणार.तरीही एक प्रश्न उरतोच : लोकशाही वाचणार कशी? कोणतं इंजक्शन उपयुक्त ठरेल, परिणामकारक-प्रभावी ठरेल? सतत कुठली ना कुठली निवडणूक लढवणाऱ्या एका निवडणूकफेम नेत्याला मी म्हटलं, ""भाऊसाहेब, आईच्या पोटात शिरल्यापासून आपण राजकारणात आहात! सांगा ना, लोकशाही कशामुळे वाचेल? कुणी म्हणतं, समाजवादामुळे लोकशाही वाचेल. कुणी म्हणतं, समाजवादामुळे लोकशाही मरेल. कुणी म्हणतं, गरिबी हटल्याशिवाय प्रजातंत्र आणता येणार नाही. कुणी म्हणतं, गरिबी हटवणं म्हणजे हुकुमशाही आणणं. कुणी म्हणतं, अमुकतमुक नेताच लोकशाही वाचवू शकेल, तर दुसरं कुणी म्हणतं, तो नेता तर लोकशाही नष्ट करण्याच्या मागे लागलाय. आपण सांगा, लोकशाही कशी वाचेल?''भाऊसाहेब म्हणाले, ""या सगळ्या शंभर गोष्टींचं एक सूत्र मी तुला सांगतो.''""अं...ते कोणतं?'' मी भाविक चेहरा धारण करून ऐकू लागलो.""आपण वाचलो-की लोकशाही वाचेल. आपण जगलो- वाचलो तर दुनिया वाचेल. मी निवडून आलो तर मी नक्कीच लोकशाही वाचवेन...बरं, निघू मी? तिकिटासाठी प्रयत्न करायचेत...''मला वाटू लागलं, की आपणही निवडणूक लढवावी आणि लोकशाही वाचवावी. जेव्हा लोकशाहीची भाजी शिजेल तेव्हा आपल्याही वाटणीला एक प्लेट येईल. जे गेली कित्येक वर्षं लोकशाहीची भाजी खाताहेत ते म्हणताहेत, ""मोठी स्वादिष्ट लागते ही भाजी!'' लोकशाहीच्या भाजीला जी लोकांची साल चिकटली आहे ती सोलून टाका. मग त्या तंत्राला शिजवा. आदर्शांचा मसाला आणि कागदी कार्यक्रमांचं मीठ घाला. मग ही शिजलेली भाजी नोकरशाहीच्या चमच्याने खा. खाणारे म्हणतात, ""मोठी मजा येते!''फिल्मी चित्रतारे-तारका आणि देशातील पैलवान मंडळी लोकशाही वाचविण्यासाठी तत्पर आहेत. माझ्या मनात विचार येतो, मग मी मागे का राहावं? मी का वाचवू नये लोकशाही? पैलवानाला बदाम कुटता कुटता कुठली सवड मिळायला? चित्रतारे-तारकांना कुठल्या ना कुठल्या बॅग्राऊंड म्युझिकवर ओठ हलवावे लागतील, शारीरिक कवायत करावी लागेल. छे छे! माझ्याशिवाय लोकशाही वाचणं शक्य नाही.पण तेवढ्यात मला हा बिनतिकिटांचा लिफाफा दिसतो. मला आलेली भेटकार्डर्ं मी एका शेजारी एक लावून ठेवली. मग बघितलं, जवळजवळ पाच चौरस मीटर शुभकामना मला नव्या वर्षासाठी आल्या होत्या. इतकी कोरी कार्डं मला मिळाली असती तर ती मी विकून टाकली असती. पण त्या कार्डांवर माझं नाव आहे, म्हणून कोणी विकत घेणार नाही ती. नाव असलेली वस्तू विकत घ्यायला मी थोडाच चित्रतारा आहे? त्यांच्या अंडरवेअरसुद्धा लिलावात किती तरी अधिक किमतीत विकल्या जातात...तर सांगत काय होतो, दुसऱ्याच्या नावाची शुभकामना कुणाच्या कामाची?मी मांडलेल्या भेटकार्डांत ते विनातिकीट आलेलं भेटकार्डही आहे. कार्डावर माझ्या सुख-समृद्धीची कामना केलीय, ही गोष्ट खरी; पण ही शुभकामना स्वीकारण्यासाठी मला दहा रुपये द्यावे लागले. जी शुभकामना हाती येण्यासाठी मला दहा रुपये द्यावे लागले, ती काय माझं मंगल करणार? शुभचिंतक मला समृद्ध बघू इच्छितो, पण हे सांगण्यासाठी माझी संपदा-समृद्धी दहा रुपयांनी कमी करतो.शुभाची सुरुवात माझ्या बाबतीत नेहमी अशुभाने होते. समृद्धी येण्यासाठी हरियाणा, राजस्थानची लॉटरीची तिकिटं घेतली. पण कसलं काय न्‌ कसलं काय! लॉटरी उघडली. त्यात माझा नंबर नव्हता. राजकारणातल्यांना कशी लॉटरी लागते? आपल्याला अशी समृद्धी नाही मिळायची. ती आडवाटेने ये-जा करते. लाजते. कुलवती आहे ना! पडदानशीनही आहे. माझ्या एका विद्यार्थ्याने ती आडवाट शोधूनही काढलीय. एक दिवस भेटला. विचारलं, ""मोठ्या थाटामाटात राहताना दिसतोस! चांगला भक्कम पैसा कमावतोस ना?''तो म्हणाला, ""सर, बिझनेस लाइन पकडलीय.''मी म्हटलं, ""अच्छा! कोणता बिझनेस करतोस?''तो म्हणाला, ""सट्टा खेळतो!''या देशात "सट्टा' बिझनेसमध्ये सामील झालाय. समुद्रमंथन करून "लक्ष्मी' वर काढण्यासाठी दानवांना आता देवांच्या मदतीची गरज नाही. पहिल्या समुद्रमंथनाच्या वेळी त्यांना टेक्निक माहीत नव्हतं, त्यामुळे देवांची मदत घ्यावी लागली. आता त्यांनी टेक्निक आत्मसात केलंय.माझ्या बाबतीत प्रत्येक चांगली गोष्ट "नॉट पेड' होते. मागच्या वर्षी स्वच्छता सप्ताहाचं उद्‌घाटन माझ्या घराजवळ झालं. "साइट' चांगली होती. तिथे कचऱ्याचा एक मोठा ढीग लावला गेला. फोटोग्राफर कोन आणि प्रकाश बघून गेला. जाताना मंत्रिमहोदयांनी कुठं उभं राहून फावडं चालवायचं ते निश्चित करून गेला. ऑफिसर कचऱ्याची सजावट करायच्या मागे लागले. एक दिवस मंत्रिमहोदय आले. तीन-चार फावडी चालवून त्यांनी सफाई सप्ताहाचं उद्‌घाटन केलं. त्यानंतर कुणीही त्या कचऱ्याच्या ढिगाकडे फिरकलंही नाही. दरवर्षी सफाई सप्ताहाचं उद्‌घाटन होईल. तीन-चार फावडी कचरा ढिगातून काढला जाईल... आणि या गतीने कचऱ्याचा ढीग सुमारे 100 वर्षांत साफ होईल. मला पेशन्स आहे. मी वाट बघू शकतो. पण या वर्षी दुसरीच जागा निवडली गेली.सफाई सप्ताह कचऱ्याचा ढीग देऊन जातो आणि नववर्ष "नॉट पेड शुभेच्छा!' तरीही मी संसदेत जायची मनीषा बाळगून आहे. एकदा एका सद्‌गृहस्थांना मी म्हटलं, ""यंदा मी निवडणूक लढवणार आहे.''ते म्हणाले, ""निवडणूक लढवून काय होणार?''मी म्हटलं, ""मी संसद सदस्य होईन.''ते म्हणाले, ""संसद सदस्य झाल्यामुळे काय होईल?''मी म्हटलं, ""मी मंत्री होईन.''ते म्हणाले, ""मंत्री झाल्यामुळे काय होईल?''मी म्हणालो,""मी मुख्यमंत्री होईन.''ते म्हणाले, ""मुख्यमंत्री झाल्यामुळे काय होईल?''मी म्हटलं, ""मी गरिबी हटवेन.''ते म्हणाले, ""गरिबी हटवल्यामुळे काय होईल?''मी म्हटलं, ""लोक सुखी होतील.''ते म्हणाले, ""पण भाऊ, लोक सुखी झाल्याने काय होईल?''याचं उत्तर माझ्याकडे नव्हतं. कसे झालेत हे भारतीय लोक! कसं झालंय त्यांचं मन! मग मला वाटलं, मलाच नाही, तर साऱ्या देशवासीयांना "नॉट पेड शुभकामना' येताहेत. आता त्यांची अशी अवस्था झालीय, की ते विचारताहेत, ""सुखी झाल्याने तरी काय होणार?''मित्र म्हणाले, ""तू निवडणूक लढवणार आहेस ना, मग तू जनतेचा उमेदवार हो. जनसमर्थित उमेदवार!''मी गेली कित्येक वर्षं या भारतीय जनाच्या शोधात आहे; पण तो सापडतच नाही. कुणी तरी म्हणालं, ""निवडणुकीच्या वेळी भेटतो हा भारतीय जन.'' आताच्या एका निवडणुकीत मी त्याला शोधू लागलो. जवळजवळ प्रत्येक पार्टीने मुसलमानांची मते मिळवण्यासाठी मौलवींना बोलावलं. मौलवीने फतवा काढला, "हे मुसलमानांनो, तुम्ही ईदच्या चंद्राबाबत माझं मत मानता. निवडणुकीच्या मतांबद्दलही माझं मत माना. माझं म्हणणं ऐका.' जैनांची मतं मिळवण्यासाठी अखिल भारतीय जैन नेत्याला बोलावलं. यातही दिगंबरांसाठी दिगंबर नेता, श्वेतांबरांसाठी श्वेतांबर नेता. स्थानकवासी आणि तेरापंथी नेते भेटले असते तर आणखीनच चांगलं झालं असतं. या क्षेत्रातील ब्राह्मणांना सांगितलं, ""इथून नेहमी ब्राह्मण निवडणूक जिंकत आलाय. गेल्या वीस वर्षांचं रेकॉर्ड आहे. जर या वेळी कुणी ब्राह्मणेतर निवडणूक जिंकला तर...तुमचा धिक्कार...धिक्कार तुम्हा ब्राह्मणांचा...!''कुठे आहे भारतीय जन? कुणासारखा आहे? "सुखीसंपन्न झाल्यामुळे काय होणार?' असं म्हणणारा तर तो जन नाही ना? की तो आहे भारतीय जन? तो रस्त्याने तर "भारतीय' होण्यासाठी चाललाय; पण कुणी तरी त्याला रोखून म्हणतंय, ""चल, परत फीर! तू भारतीय नाहीस! ब्राह्मण आहेस...जैन आहेस...तेली आहेस... नाभिक आहेस...मुसलमान आहेस...''"नॉट पेड' भेटकार्ड माझ्या डोळ्यांत वटारून पाहतं आणि म्हणतं, "काळाचा इशारा लक्षात घे आणि परत फीर!' तुझ्याकडून लोकशाही वाचणार नाही. निवडणूक जिंकून लोकशाही वाचवण्याचं काम नववर्षाला तुझ्याकडे सोपवायचं असतं तर माझ्यावर पूर्ण तिकीट चिकटलं नसतं का?''
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उज्ज्वला केळकर176/2, "गायत्री',
वसंतदादा साखर कामगारभवनजवळ, सांगली- 416416, फोन : 0233-2310020

आडवाटेचा ज़माना

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आडवाटेचा ज़माना
मूळ लेखक : हरिशंकर परसाई Harishankar Parsai
अनुवाद : उज्ज्वला केळकर Ujjwala Kelkar

मी इमानदार बनण्याचा पुन्हा प्रयत्न केला, आणि पुन्हा अयशस्वी झालो. एकदा एक सद्‌गृहस्थ माझ्याकडे आले. माझ्या ओळखीच्या प्राध्यापकांना सांगून मी त्यांच्या मुलाचे मार्क वाढवावेत, अशी त्यांनी मला विनंती केली. एरवी मी त्यांचं काम केलं असतं. परंतु खूप दिवसांनंतर मला प्रामाणिकपणाची आठवण झाली होती आणि मी पूर्णपणे प्रामाणिक बनण्याची प्रतिज्ञा त्या काळात केली होती. त्या सद्‌गृहस्थांचं बोलणं ऐकून मला जुन्या कथा आठवल्या आणि मी विचार करू लागलो, की मी प्रतिज्ञा करतो न करतो तोच हे इंद्र किंवा विष्णू परीक्षा घेण्यासाठी इथे येऊन पोहोचले की काय? या काळात कुणी दीर्घकाळ तपश्चर्या करेल यावर त्यांचा विश्वास नाही. चार गोष्टी लिहून लोक युगप्रवर्तकांच्या यादीत आपलं नाव शोधू लागतात. त्यामुळे देवही आता तपश्चर्या सुरू होताच परीक्षा घेण्यासाठी येऊन पोहोचतात. मी त्यांना प्रणाम केला आणि प्रत्यक्षात म्हटलं, ""मी हे सगळं अनुचित आणि अनैतिक मानतो. मी हे काम करणार नाही.'' मला आशा होती, की ते आता आपल्या मूळ देवस्वरूपात प्रगट होतील आणि म्हणतील, ""बा वत्सा, तू परीक्षेत पूर्णपणे उतरला आहेस. बोल, तुला काय हवं? मी आत्ता वर देण्याच्या मूडमध्ये आहे. बोल, काय करू तुझ्यासाठी? हिंदी साहित्याच्या इतिहासात तुझ्यावर एक प्रकरण लिहिवून घेऊ? की कुणा समीक्षकाला तुझ्या घरी पाणी भरण्याची ड्यूटी लावू?''ते मूळ स्वरूपात आले; पण ते रूप मुळीच प्रसन्न नव्हतं, रोषपूर्ण होतं. ते बडबडत निघून गेले. मी ऐकलं, ते लोकांना माझ्याविषयी सांगत होते, ""आज-काल तो साला मोठा प्रामाणिक बनलाय!'' मी ज्यांना देव समजत होतो तो तर साधा माणूसच निघाला. मी माझ्या आत्म्याला विचारलं, ""हे माझ्या आत्म्या, तूच सांग, शिव्या खाऊन आणि बदनामी करून घेऊन मी इमानदार, प्रामाणिक बनून राहू?''आत्म्यानं उत्तर दिलं, ""नाही, तशी काही जरूर नाही. इतकी काय घाई आहे? पुढे काळ बदलेल, तेव्हा बन इमानदार नि प्रामाणिक!''माझा आत्मा कधी कधी योग्य रीतीने गुंत्याची उकल करतो. चांगला आत्मा फोल्डिंग खुर्चीसारखा असायला हवा. गरज लागली तर ती उघडून बसावं, नाही तर मिटवून ती कोपऱ्यात उभी करून ठेवावी. जेव्हा जेव्हा मला आत्मा अडवतो तेव्हा तेव्हा मला जुन्या कथांची आठवण होते. या जुन्या कथांमधील राक्षस आपला आत्मा दूरच्या पहाडावरील एखाद्या पोपटात का ठेवत होते? ते त्यापासून मुक्त होऊन बिनदिक्कतपणे राक्षसी काम करू शकत होते. देव आणि दानव यात अजूनही हाच फरक आहे. एकाचा आत्मा त्याच्याजवळच असतो आणि दुसऱ्याचा त्याच्यापासून दूर! मी अशी काही माणसं पाहिली आहेत, ज्यांच्यापैकी काहींनी आत्मा कुत्र्यात ठेवला आहे, काहींनी डुकरात. आता तर जनावरांनीही ही विद्या शिकून घेतलीय. काही कुत्री आणि डुकरं आपला आत्मा काही काही माणसांमध्ये ठेवतात. आत्मा म्हणाला, तेव्हा मी प्रामाणिक बनण्याचा इरादा सोडून दिला. राधेश्यामनेही असा प्रयत्न केला होता आणि तोही आपल्या प्रयत्नात अयशस्वी झाला होता. त्याचं एक छोटंसं दुकान होतं. त्याने विक्रीच्या पैशाचा अगदी खरा हिशोब ठेवला आणि तो विक्रीकराच्या कार्यालयात घेऊन गेला. तिथे त्याला सांगितलं गेलं, की हिशोब खोटा आहे. त्याला त्याचा खरा हिशोब खरा ठरवण्यासाठी लाच द्यावी लागली. खऱ्यासाठी लाच देण्यापेक्षा खोट्यासाठी लाच देणं केव्हाही चांगलंच ना? इतका महाग प्रामाणिकपणा आपल्या कुवतीच्या बाहेरचा आहे. यापेक्षा अप्रामाणिकपणा जास्त स्वस्त आहे. एक स्त्री नोकरीसाठी एका मोठ्या माणसाकडे चारित्र्याचं प्रमाणपत्र मागायला गेली. त्या मोठ्या माणसाने तिला प्रथम आपल्या शयनकक्षात घेऊन जाण्याची इच्छा प्रदर्शित केली नि मग सच्चारित्र्याचं प्रमाणपत्र द्यायचं ठरवलं. प्रथम देव माणसं बनून फसवत होते. आता माणसं देव बनून फसवतात. प्रत्येक सत्याच्या हातात खोट्याचं प्रमाणपत्र असलेलं दिसतं. प्रामाणिकपणाजवळ अप्रामाणिकपणाने केलेल्या शिफारशीची चिठ्ठी नसेल तर कुणी त्याला दोन पैशालासुद्धा विचारणार नाही. हाच सगळा विचार करून मी शिथिल झालो. आता मी मोकळेपणाने मार्क वाढवू शकतो. या दिवसांत मला खूप स्नेही भेटतात. वर्षातून एखाद-दुसऱ्या वेळीच ते मला पूर्वी भेटायचे. त्यांना आलेलं पाहताच ते कोणत्या कामासाठी आलेले आहेत ते माझ्या लक्षात येतं. मोसम पाहून मी येणाऱ्याचं काम काय आहे ते सांगू शकतो. जुलैच्या पहिल्या आठवड्यात जेव्हा मेघ दाटून आलेले असतात, धरतीने हिरवी ओढणी धारण केलेली असते, आसपास मोर-चातकांचे स्वर गुंजत असतात, निग्रो सुंदरीच्या दातांप्रमाणे वीज चमकत असते, अशा सुरेख समयी कुणी अनेक महिन्यांनंतर आलेलं पाहिलं की लक्षात येतं, की हे काही गीत गाण्यासाठी आलेले नाहीत, आपल्या मुलांना शाळेत घालण्यासाठी मदत मागायला आले आहेत. इकडे मार्चमध्ये जो येतो तो मार्क वाढवण्यासाठी किंवा पेपर आऊट करवण्यासाठी. खरी गोष्ट अशी आहे, की सगळ्या तुकड्यांची "सिलॅबस' आणि "प्रॉस्पेक्टस' चुकीची आहेत. त्यात जरूर असलेल्या अशा दोन कागदांचा उल्लेखच असत नाही. एक कागद सुरुवातीचा आणि एक कागद शेवटचा. पहिला कागद पेपर आऊट करण्याचा असतो आणि दुसरा मार्क वाढवण्याचा. जो या कागदांचा नीट अभ्यास करतो तो पास होतो. फर्स्टक्लाससुद्धा मिळवू शकतो. हे कागद म्हणजे प्रश्र्नपत्रिका. काही विद्यार्थी ती स्वत:च तयार करतात. ते प्रतिभावान असतात आणि त्यांचं भविष्य उज्ज्वल असतं. काहींचे पालक या प्रश्र्नपत्रिका तयार करतात. अशा दुसऱ्यांच्या तोंडाकडे पाहणाऱ्या विद्यार्थ्यांचं भवितव्य संदिग्ध असतं. त्यांच्यापेक्षा त्यांच्या पालकांचंच भविष्य बरं आहे, असं म्हणायला हवं. अध्यापकांशी माझा संबंध असल्यामुळे माझ्याकडे दोन्ही प्रकारचे लोक येतात. काल जे आले होते ते दोन वर्षांपूर्वी एका लग्नात मला पहिले आणि शेवटचे भेटले होते. त्या छोट्याशा परिचयातून माझ्याविषयी त्यांना एवढी आत्मीयता वाटू लागली होती, की भाऊ परीक्षेला बसला आहे, म्हटल्यावर त्यांना माझी आठवण सतावू लागली. विरहिणीला पाऊसकाळात आपल्या प्रियकराची आठवण सतावते, तसंच परीक्षेच्या मोसमात काही लोकांचा विरह जागा होतो आणि त्यांना काही विशेष परिचितांची आठवण सतावू लागते. ते सांगू लागले, ""अमुक प्रोफेसर आपले मित्र आहेत. त्यांनी प्रश्नपत्रिका काढलीय. काही हिंट द्यायला सांगा नं!'' मला वाटू लागलं, की एखाद्याशी मैत्री आहे, तर त्याचा एवढाच उपयोग आहे की काय, की जरुर पडेल तेव्हा त्याच्याकडून चुकीचं काम करून घ्यावं? कुणी असं म्हणत नाही, की अमक्यांशी आपली मैत्री आहे, तर त्यांना समजावा ना, की असं चुकीचं काम करू नका. किंवा कुणी असंही म्हणत नाही, की अमुक आपला शत्रू आहे, तर त्याच्याकडून पेपर आऊट करून घेऊन त्याचं इमान बिघडवा. नाही. शत्रू सगळे सुरक्षित आहेत. इमान नेहमी मित्रांचंच बिघडवलं जातं. या सगळ्या प्रश्र्नपत्रिका फोडा म्हणणाऱ्या आणि मार्क वाढवा म्हणणाऱ्या लोकांना हसताही येत नाही त्याची दया वाटते. हे अतिशय त्रासलेले आणि भयभीत झालेले लोक असतात. कुणाला वाटत असतं, की मुलगा पास झाला म्हणजे त्याला नोकरी लावता येईल. त्यामुळे कुटुंबाची दुर्दशा थोडी कमी होईल. कुणाला वाटतं, मुलगा नापास झाला तर त्याचा वर्षभराचा अभ्यासाचा खर्च कसा भागवायचा? कुणाला वाटत असतं, मुलगी पास झाली तर लग्न करून थोडंसं ओझं हलकं करता येईल. खूप दु:खी-कष्टी असतात हे लोक. यात काही लोक तर इतके दीन असतात, की वाटतं, आधी त्यांच्या गळ्यात पडून रडून घ्यावं. माझ्या वैतागाचं कारण दुसरंच आहे. हे लोक आता बेधडकपणे, नि:संकोचपणे, निर्लज्जपणे काम करू लागले आहेत. दहा वर्षांपूर्वीही मी हे काम करून देत होतो. मार्क वाढवून द्या म्हणणारे घाबरत, चाचरत, लाजत, संकोचत त्याबद्दल बोलायचे. लोक सहजपणे तसं बोलत नसत. त्या वेळी लपून-छपून अशी चिठ्ठी यायची- "आपला दोस्त रमेशचंद्रचा भाऊ सुरेशची मोटरसायकल बिघडली आहे. तिच्यावर इंग्रजीत 2431 नंबर लिहिलेला आहे. ती आपला मित्र सिन्हा यांच्याकडे दुरुस्तीसाठी गेली आहे. आपण अशा तऱ्हेने त्यात सुधारणा करा, की ती कमीत कमी 40 टक्के तरी काम देऊ शकेल.' याचा अर्थ असा, की सुरेशचा रोल नंबर 2431 आहे. त्याचा इंग्रजीचा पेपर बिघडलाय. सिन्हा पेपर तपासताहेत आणि त्यांच्याकडून 40 टक्के गुण देववायचे आहेत. आता सरळ सरळ चिठ्ठी येते. उघडं पत्रसुद्धा येतं. त्या वेळी गुण वाढवायला येणारे खूप वेळ संकोचाने बसून राहत, इकडच्या-तिकडच्या गोष्टी करत आणि नंतर शरमून बगला झाकत मार्क वाढवण्याबद्दल बोलत असत. आता मार्क वाढवायला येणारा अशा तऱ्हेने येतो, जसा काही बाजारात भाजी घ्यायला चाललाय! सरळ माझ्या डोळ्यांत पाहतो आणि अधिकारवाणीने सांगतो, की मार्क वाढवायचे आहेत. दहा वर्षांत ही जी काही प्रगती झाली आहे ती मला त्रास देते. अत्यंत संकोचहीनता झालीय. लोकांचं हे साहस मला घाबरवतं. मी वाट बघतो, की कुणी तरी थोडासा संकोच घेऊन येईल आणि मी आश्वस्त होईन. कोणी येत नाही. मला वाटतंय, आम्ही सगळ्यांनी हे मान्य केलंय, की साधारण असलेले सगळे रस्ते बंद झालेत. त्यावर पाटी टांगलीय : "रस्ते दुरुस्तीसाठी बंद आहेत.' वर्षानुवर्षं हे रस्ते बंद आहेत आणि सगळे आडवाटेने चाललेत. चालता चालता आडवाटेवरची झाडं-झुडपं, काटेकुटे साफ झालेत आणि या वाटा मोठ्या रस्त्यांसारख्याच गुळगुळीत आणि रुंद झाल्यात. अनवाणी लोक बेधडकपणे या वाटेवरून चाललेत. साधारण रस्त्याने जाणारा आता मूर्ख आणि वेडा समजला जाईल. आता साधारण रस्ते खुले झाले तरी लोक त्यावरून चालताना कचरतील. दुरुस्ती करणारेही याच कारणासाठी शिथिल झालेत. वहिवाटीत न आल्याने आता साधारण रस्त्यांवर झाडोरा, जंगली झाडं उगवतील आणि रस्ते झाकून जातील. त्या वेळी कुणालाही जाणवणार नाही, की या देशात साधारण रस्तेही आहेत. साधारण रस्ते आता भविष्यात पुरातत्त्ववेत्त्यांनाच मिळतील. तेच हे रस्ते शोधून काढतील. ते निष्कर्ष काढून सांगतील, की त्या काळात या देशात साधारण रस्ते होते, पण कुणी त्यावरून चालत नव्हतं. सगळे आडवाटेनेच जायचे. उपयोगात न आल्याने रस्ते दबून गेले. सफलतेच्या महालाचा समोरचा दरवाजा बंद झालाय. अनेक लोक आत घुसलेत आणि त्यांनी कडी लावून घेतलीय. ज्याला आत घुसायचंय तो नाकाला रुमाल लावून गटारीतून आत घुसतो. आसपास सुगंधित रुमालांची दुकानं लागलीत. लोक रुमाल खरेदी करून नाकाला लावून गटारीतून आत घुसताहेत. ज्यांना दुर्गंधी जास्त येते, जे फक्त मुख्य दरवाज्यातूनच आत जाऊ इच्छितात, ते दरवाज्याच्या बाहेर उभं राहून डोकं आपटताहेत आणि त्यांच्या कपाळातून रक्त वाहतंय. ---------------------------------------------------------------------------------- उज्ज्वला केळकर176/2, "गायत्री', वसंतदादा साखर कामगारभवनजवळ, सांगली- 416416, फोन : 0233-2310020
 
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